Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ ॐ णापाजीवेहि अंतरं। $ १४४. सुगममेदं, अहियारसंभालणमेत्तवावारादो।
8 सव्वकम्मसंकामयाणं पत्थि अंतरं । $ १४५. एदस्स विवरणमुच्चारणामुहेण वत्तइस्सामो। तं जहा-अंतराणुगमेण
जीव, जो एक समयबाद अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संक्रम करेंगे, देव, मनुष्य या तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुए हैं तो इनकी अपेक्षासे भी उक्त एक समय काल प्राप्त हो जाता है, क्योंकि नरकगतिमें सासादनवाला उत्पन्न नहीं होता और मिथ्यात्वमें जाकर संयोजना करनेवालेका अन्तर्मुहुतंसे पहिले मरण नहीं होता। यद्यपि सामान्य मनुष्योंकी संख्या असंख्यात है पर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले मनुष्यनिककी संख्या संख्यात ही है। ऐसे जीव यदि मिथ्यात्व और सासादनमें इस क्रमसे उत्पन्न हों जिससे वहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कके संक्रामकोंका नैरन्तयं बना रहे तो ऐसे कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं हो सकता, अतः उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कके असंक्रामकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वके असंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त प्राप्त कर लेना चाहिये, क्योंकि यहाँ नानाजीवोंकी अपेक्षा सासादनका जघन्य काल एक समय और सासादन या सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होनेसे इनके मिथ्यात्वका संक्रम सम्भव नहीं और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें एक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होनेसे इनके सम्क्त्वका संक्रम सम्भव नहीं, इसीसे इनके सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रमका उल्लेख किया है । सर्वार्थसिद्धिमें संख्यात जीव ही होते हैं, अतः वहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कके असंक्रामकोंका जघन्य काल एक समय कम एक आवलि और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। इसका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः यहाँ सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके संक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकोंका उत्कृष्ट काल तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है किन्तु जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि ऐसे नाना जीव जिन्हें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यके संक्रममें एक समय शेष है, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और फिर द्वितीयादि समयोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम करनेवाले अन्य जीव नहीं उत्पन्न हुए तो ऐसी हालतमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें इन दो प्रकृतियोंके संक्रामकोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसी प्रकार इन दो प्रकृतियोंके असंक्रामकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित करना चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक अपनी अपनी विशेषताको समझकर यथासम्भव प्रकृतियोंके संक्रामकों और असंक्रामकोंका काल कहना चाहिये।
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकालका अधिकार है। $ १४४. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका काम एक मात्र अधिकारकी संहाल करना है। * सब कोंके संक्रामकोंका अन्तरकाल नहीं है। ६ १४५. अब उच्चारणा द्वारा इस सूत्रका विवरण करते हैं। यथा-अन्तरानुगमकी अपेक्षा
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