Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २६]
एयजीवेण अंतरं सम्मत्तकालो पच्छिल्लमिच्छत्तजहण्णकालादो बहुओ तेण मिच्छत्तजहण्णकालमत्तं तत्थ सोहिय सुद्धसेसेण सादिरेयत्तं वत्तव्वं ।
8 सेसाणमेकवीसाए पयडीणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ६ १११. सुगमं । 8 जहणणेण एयसमग्रो ।
११२. तं जहा--इगिवीसपयडीणं संकामओ उवसमसेढिमारुहिय अप्पप्पणो ठाणे सम्बोवसमं काऊणेयसमयमंतरिय पुणो विदियसमए कालं गदो संतो देवेसुप्पण्णपढमसमए लद्धमंतरं करेइ त्ति वत्तव्यं ।
* उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
११३. तं कथं ? अणियट्टिअद्वाए संखेज्जे भागे गंतूण सव्वासिमणंतरपरूविदपयडीणं सगसगट्ठाणे सव्वोवसमं काऊण असंकामयभावेणंतरिय अणियट्टि०-सुहुम०उसंत गुणट्ठाणाणि कमेणाणुपालिय पुणो ओदरमाणो सुहम गुणट्ठाणं वोलीणो है वह अन्तमें प्राप्त हुए मिथ्यात्वके जघन्य कालसे बहुत है, इसलिये उपशमसम्यक्त्वके पूर्वोक्त कालमेंसे मिथ्यात्यके जघन्य कालको घटाकर उपशमसम्यक्त्वका जो काल शेष रहे उतना अधिक कहना चाहिये। श्राशय यह है कि दूसरे छयासठ सागरमेंसे यद्यपि अन्तमें प्राप्त हुए मिथ्य त्ब गुणस्थानका जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल घट जाता है पर इस छयासठ सागरमें विसंयोजनाके बाद बचे हुए उपशमसम्यक्त्वके कालके मिला देने पर वह छयासठ सागरसे कुछ अधिक हो जाता है, इस लिये यहां अनन्तानुबन्धियोंके संक्रमका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण कहा है।
* शेष इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रामकका अन्तरकाल कितना है । ६१११. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
$ ११२. खुलासा इस प्रकार है-इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रामक जिस जीवने उपशमश्रेणि पर चढ़ कर और अपने अपने स्थानमें उनका सर्वोपशम करके एक समय तक उनके संक्रमका अन्तर किया फिर दूसरे समयमें मर कर जो देव हुआ उसके वहां उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही इन प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर प्राप्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आशय यह है कि जिस समयमें जिस प्रकृतिका सर्वोपशम होता है उसके एक समय बाद यदि वह उपशम करनेवाला जीव मर कर देव हो जाता है तो उस प्रकृतिके संक्रमका एक समय अन्तर प्राप्त होता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूते है। 5 ११३. शंका—सो कैसे ?
समाधान-अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात भागोंको बिता कर पहले कही गई सब प्रकृतियोंका अपने अपने स्थानमें सर्वोपसम होनेसे वे असंक्रमभावको प्राप्त हो जाती हैं और इस प्रकार इनके संक्रमका अन्तर करके उसी अन्तरके साथ अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह इन तीन गुणस्थानोंको क्रमसे प्राप्त कर फिर उतरते समय सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानको
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