Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
xvi
कर्मग्रन्थभाग-१
पाप-बन्ध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर-ऊपर की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है। अच्छे आशय से जो काम किया जाता है वह पुण्य का निमित्त और बुरे अभिप्राय से जो काम किया जाता है वह पाप का निमित्त होता है। यह पुण्य पाप की कसौटी सब को एक जैसी मान्य है। क्योंकि यह सिद्धान्त सर्वमान्य है कि
'यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी'। ५. सच्ची निर्लेपता
साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम न करने से अपने को पूण्य-पाप का लेप न लगेगा। इससे वे उस काम को तो छोड़ देते हैं, पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्यपाप के लेप से अपने को मुक्त नहीं कर सकते। अतएव विचारना चाहिए कि सच्ची निलेपता क्या है? लेप (बन्ध), मानसिक क्षोभ को अर्थात् कषाय को कहते हैं। यदि कषाय नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने के लिए समर्थ नहीं है। इससे उलटा यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छड़ा नहीं सकता। कषाय-रहित वीतराग सब जगह जल में कमल की तरह निर्लेप रहते हैं पर कषायवान आत्मा योग का स्वाँग रच कर भी तिल भर शुद्धि नहीं कर सकता। इसी से यह कहा जाता है कि आसक्ति छोड़कर जो काम किया जाता है वह बन्धक नहीं होता। मतलब सच्ची निर्लेपता मानसिक क्षोभ के त्याग में है। यही शिक्षा कर्मशास्त्र से मिलती है और यही बात अन्यत्र भी कही हुई है
'मन एव मनुष्याणांकारणं बन्यमोक्षयोः। बन्धाय विषयाऽऽसगि मोक्षे निर्विषयं स्मृतम्।।'
-मैत्र्युपनिषद् ६. कर्म का अनादित्व
विचारवान मनुष्य के दिल में प्रश्न होता है कि कर्म सादि है या अनादि? इसके उत्तर में जैन दर्शन का कहना है कि कर्म, व्यक्ति की अपेक्षा से सादि
और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है। यह सबका अनुभव है कि प्राणी सोतेजागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की हलचल किया ही करता है। हलचल का होना ही कर्म-बन्ध की जड़ है। इससे यह सिद्ध है कि कर्म, व्यक्तिश: आदि वाले ही हैं। किन्तु कर्म का प्रवाह कब से चला? इसे कोई बतला नहीं सकता। भविष्यत् के समान भूतकाल की गहराई अनन्त है। अनन्त का वर्णन अनादि या अनन्त शब्द के अतिरिक्त और किसी तरह से होना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org