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कर्मग्रन्थभाग-१
५. जिस कर्म के उदय से पाँच इन्द्रियाँ-त्वचा, जीभ, नाक, आँख और कान-प्राप्त हों, वह पञ्चेन्द्रिय जातिनाम कर्म है।
'शरीर नाम के पाँच भेद'
१. उदार अर्थात्-प्रधान अथवा स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक कहलाता है, जिस कर्म से ऐसा शरीर मिले उसे औदारिक शरीरनामकर्म कहते हैं।
तीर्थंकर और गणधरों का शरीर, प्रधान पदगलों से बनता है और सर्वसाधारण का शरीर स्थूल, असारपुद्गलों से बनता है। मनुष्य और तिर्यश्च को औदारिक शरीर प्राप्त होता है।
२. जिस शरीर से विविध क्रियाएँ होती हैं, उसे वैक्रिय शरीर कहते हैं, जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो, उसे वैक्रिय शरीर नामकर्म कहते हैं।
विविध क्रियाएँ ये हैं—एक स्वरूप धारण करना, अनेक स्वरूप धारण करना, छोटा शरीर धारण करना, बड़ा शरीर धारण करना, आकाश में चलने योग्य शरीर धारण करना, भूमि पर चलने योग्य शरीर धारण करना, दृश्य शरीर धारण करना, अदृश्य शरीर धारण करना, इत्यादि अनेक प्रकार की अवस्थाओं को वैक्रिय शरीरधारी जीव कर सकता है।
वैक्रिय शरीर दो प्रकार के हैं-१. औपपातिक और २. लब्धिप्रत्यय।
देव और नारकों का शरीर औपपातिक कहलाता है अर्थात् उनको जन्म से ही वैक्रिय शरीर मिलता है। लब्धिप्रत्यय शरीर, तिर्यञ्च और मनुष्यों को होता है अर्थात् मनुष्य और तिर्यश्च तप आदि के द्वारा प्राप्त किये हुये शक्ति-विशेष से वैक्रिय शरीर धारण कर लेते हैं।
३. चतुर्दशपूर्वधारी मुनि अन्य (महाविदेह) क्षेत्र में वर्तमान तीर्थङ्कर से अपना सन्देह निवारण करने के लिये अथवा उनका ऐश्वर्य देखने के लिये जब उक्त क्षेत्र को जाना चाहते हैं, तब लब्धिविशेष से एक हाथ प्रमाण अतिविशुद्धस्फटिक के समान निर्मल जो शरीर धारण करते हैं, उस शरीर को आहारक शरीर कहते हैं, जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर की प्राप्ति हो उसे आहारक शरीरनामकर्म कहते हैं।
४. तेज:पुद्गलों से बना हुआ शरीर तैजस कहलाता है, इस शरीर की उष्णता से खाये हुये अन्न का पाचन होता है और कोई-कोई तपस्वी जो क्रोध
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