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कर्मग्रन्थभाग-२
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हैं, किन्तु जिनको मोक्ष के लिये जन्मान्तर लेना बाकी है—उन जीवों की अपेक्षा से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का पक्ष समझना चाहिये; क्योंकि जो चरम शरीरी क्षायिक-सम्यक्त्वी हैं उनको मनुष्य-आयु के अतिरिक्त दूसरी आयु की न तो स्वरूप सत्ता है और न सम्भव-सत्ता।।२६।।
अब क्षपक जीव की अपेक्षा से सत्ता का वर्णन करते हैं।
खवगंतु पप्प चउसुवि पणयालं नरयतिरिसुराउविणा । सत्तगविणु अडतीसं जा अनियट्टी पढमभागो ।।२७।। क्षपकं तु प्राप्य चतुर्ध्वपि पञ्चचत्वारिशन्नरकतिर्यक्सुरायुर्विना सप्तकं विनाष्टात्रिंशद्यावदनिवृत्तिप्रथमभागः ।। २७।।
अर्थ-जो जीव क्षपक (क्षपकश्रेणि कर उसी जन्म में मोक्ष पानेवाला) है उसकी अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें पर्यन्त चार गुणस्थानों में १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पायी जाती है; क्योंकि उस क्षपक-जीव कोअर्थात् चरमशरीरी जीव को-नरक-आयु, तिर्यञ्च-आयु और देव-आयु-इन तीन कर्म-प्रकृतियों की न तो स्वरूप सत्ता है और न सम्भव सत्ता। जो जीव क्षायिकसम्यक्त्वी होकर क्षपक है, उसकी अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से लेकर नौवें गुणस्थान के प्रथम-भाग पर्यन्त उक्त तीन आयु, अनन्तानुबन्धि-कषायचतुष्क और दर्शन-त्रिक-इन दस को छोड़कर १४८ में से शेष १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पायी जाती है ।।२७।।
भावार्थ-जो जीव, वर्तमान-जन्म में ही क्षपक श्रेणि कर सकते हैं, वे क्षपक या चरम-शरीरी कहलाते हैं। उनको मनुष्य-आयु ही सत्ता में रहती है, दूसरी आयु नहीं। इस तरह उनको आगे भी दूसरी आयु की सत्ता होने की सम्भावना नहीं है। इसलिये उन क्षपक-जीवों को मनुष्य आयु के अतिरिक्त अन्य आयुओं की न तो स्वरूप-सत्ता है और न सम्भव-सत्ता। इसी अपेक्षा से क्षपक जीवों को १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। परन्तु क्षपक-जीवों में जो क्षायिक-सम्यक्त्वी हैं उनके अनन्तानुबन्धि-आदि सात कर्म-प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है। इसीलिये क्षायिक-सम्यक्त्वी क्षपक-जीवों को १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है। जो जीव, वर्तमान-जन्म में क्षपकश्रेणि नहीं कर सकते, वे अचरम-शरीरी कहलाते हैं। उनमें कुछ क्षायिक-सम्यक्त्वी भी होते हैं और कुछ औपशमिक-सम्यक्त्वी तथा कुछ क्षायोपशमिक-सम्यक्त्वी। २५वीं गाथा में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है; जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी तथा
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