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कर्मग्रन्थभाग-३
१६५
'देवगति के बन्ध-स्वामित्व को दो गाथाओं से कहते हैं - निरयव्व सुरा नवरं, ओहे मिच्छे इगिदितिग सहिया। कप्पदुगे विय एवं, जिणहीणो जोइभवणवणे।।१०।। निरया इव सुरा नवरमोघे मिथ्यात्व एकेन्द्रियत्रिक सहिताः।
कल्पद्विकेऽपि चैवं जिनहीनो ज्योतिष भवनवाने।।१०।।
अर्थ-यद्यपि देवों का प्रकृति-बन्ध नारकों के प्रकृति-बन्ध के समान है, तथापि सामान्य-बन्ध-योग्य और पहले गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृतियों में कुछ विशेष है; क्योंकि एकेन्द्रियजाति, स्थावर तथा आतपनामकर्म इन तीन प्रकृतियों को देव बांधते हैं, पर नारक उन्हें नहीं बांधते। ‘सौधर्म' नामक पहले और 'ईशान' नामक दूसरे कल्प (देवलोक) में जो देव रहते हैं, उनका सामान्य तथा विशेष प्रकृति-बन्ध देवगति के उक्त प्रकृति-बन्ध के अनुसार ही है। इस प्रकार ज्योतिष, भवनपति और व्यन्तर निकाय के देव जिननामकर्म के अतिरिक्त और सब प्रकृतियों को पहले दूसरे देवलोक के देवों के समान ही बांधते हैं। ___ भावार्थ—सामान्य देवगति में तथा पहले दूसरे देवलोक के देवों को सामान्यरूप से १०४, पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बंध होता है।
उपर्युक्त ज्योतिष आदि देवों को सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों का बंध होता है।।१०॥
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