________________
१८०
ian
कर्मग्रन्थभाग-३ में' ७५ और तेरहवें गुणस्थान में १ प्रकृति का बन्ध होता है।
आहारक काययोग और आहारक-मिश्र-काययोग दोनों छठे ही गुणस्थान में पाये जा सकते हैं, इसलिये उनमें उस गुणस्थान की बन्ध-योग्य ६३२ प्रकृतियों ही का बन्ध-स्वामित्व दर्शाया गया है।।१५।।।
सुरओहोवेउव्वे, तिरियनराउ रहिओ य तम्मिस्से। वेयतिगाइम बियतिय-कसाय नवदुचउपंचगुणे।।१६।। सुरौघौ वैक्रिये तिर्यङ्नरायूरहितश्च तन्मिश्रे।
वेद-त्रिकादिमद्वितीयतृतीयकषाया नवद्विचतुष्पञ्चगुणे।।१६।।
अर्थ-वैक्रियकाययोग में देवगति के समान बन्ध-स्वामित्व है। वैक्रियमिश्र-काययोग में तिर्यञ्च आयु और मनुष्य आयु के अतिरिक्त अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध वैक्रियकाययोग के समान है। (वेद और कषाय मार्गणा का बन्धस्वामित्व) तीन वेद में ९ गुणस्थान हैं। आदिम-पहले ४ अनन्तानुबन्धी कषायों में पहला, दूसरा दो गुणस्थान हैं। दूसरे-अप्रत्याख्यानावरण कषायों में पहिले ४ गुणस्थान हैं। तीसरे-प्रत्याख्यानावरण कषायों में पहले ५ गुणस्थान हैं।।१६।।।
भावार्थ- वैक्रियकाययोग। इसके अधिकारी देव तथा नारक ही हैं। इससे इसमें गुणस्थान देवगति के समान ४ ही माने हुए हैं और इसका बन्धस्वामित्व भी देवगति के समान ही अर्थात् सामान्यरूप से १०४, पहले गुणस्थान में १०३, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे में ७२ प्रकृतियाँ का है। १. यद्यपि कार्मण काययोग का बन्धस्वामित्व औदारिक मिश्र काययोग के समान कहा
गया है और चतुर्थ गुणस्थान में औदारिक मिश्र काययोग में ७५ प्रकृतियों के बन्ध पर शंका उठाकर ७० प्रकृतियों के बन्ध का समर्थन किया गया है तथापि कार्मणकाययोग में चतुर्थं गुणस्थान के समय पूर्वोक्त शंका समाधान की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि औदारिक मिश्र काययोग के अधिकारी तिर्यञ्च तथा मनुष्य ही हैं जो कि मनुष्य-द्विक आदि ५ प्रकृतियों को नहीं बाँधते; परन्तु कार्मणकाययोग के अधिकारी मनुष्य तथा तिर्यश्च के अतिरिक्त देव तथा नारक भी हैं जो कि मनुष्यद्विक से लेकर वज्रऋषभनाराचसंहनन तक ५ प्रकृतियों को बाँधते हैं। इसी से कार्मण काययोग का चतुर्थ गुणस्थान सम्बन्धिनी बन्ध्य ७५ प्रकृतियों में उक्त पाँच प्रकृतियों
की गणना है। २. यथा-'तेवट्ठाहारदुगे जहा पमत्तस्स' इत्यादि। (प्राचीन बन्ध स्वामित्व, गा. ३२)
किन्तु आहारक मिश्र काययोग में देव आयु का बन्ध गोम्मटसार नहीं मानता, इससे उसके मतानुसार उस योग में ६२ प्रकृतियों ही का बन्ध होता है। यथा'छट्टगुणं वाहारे, तम्मिस्से णत्थि देवाऊ।' (कर्मकाण्ड. गा. ११८) अर्थात् आहारक-काययोग में छठे गुणस्थान की तरह बन्धस्वामित्व है, परन्तु आहारकमिश्र-काययोग में देवायु का बन्ध नहीं होता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org