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कर्मग्रन्थ भाग - ३
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वैक्रिय-मिश्र - काययोग- इसके स्वामी भी देव तथा नारक ही हैं, इसमें आयु का बन्ध असम्भव है; क्योंकि यह योग अपर्याप्त अवस्था ही में देवों तथा नारकों को होता है, लेकिन देव तथा नारक पर्याप्त अवस्था में, अर्थात् ६ महीने प्रमाण आयु बाकी रहने पर ही, आयु-बन्ध करते हैं। इसी से इस योग में तिर्यञ्च आयु और मनुष्य आयु के अतिरिक्त अन्य सब प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व वैक्रिय काययोग के समान कहा गया है।
वैक्रिय - मिश्र - काययोग में वैक्रिय काययोग से एक भिन्नता और भी है। वह यह है कि उसमें चार गुणस्थान हैं पर इसमें तीन ही; क्योंकि यह योग अपर्याप्त अवस्था ही में होता है इससे इसमें अधिक गुणस्थान असम्भव हैं। अतएव इसमें सामान्यरूप से १०२, पहिले गुणस्थान में १०१, दूसरे में ९६ और चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध - स्वामित्व समझना चाहिये ।
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पाँचवें गुणस्थान में वर्तमान अम्बड र परिव्राजक आदि ने तथा छठे गुणस्थान में वर्तमान विष्णुकुमार आदि मुनि ने वैक्रिय लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर किया था - यह बात शास्त्र में प्रसिद्ध है। इससे यद्यपि वैक्रिय काययोग तथा वैक्रिय-मिश्र-काययोग का पाँचवें और छठे गुणस्थान में होना सम्भव है, तथापि वैक्रिय - काययोग वाले जीवों को पहले चार ही और वैक्रिय - मिश्र - काययोग वाले जीवों को पहला, दूसरा और चौथा ये तीन ही गुणस्थान बतलाये गये हैं, इसका कारण यह जान पड़ता है कि 'लब्धि- जन्य वैक्रिय शरीर की अल्पता (कमी) के कारण उससे होने वाले वैक्रिय काययोग तथा वैक्रिय-मिश्र - काययोग की विवक्षा आचार्यों ने नहीं की है । किन्तु उन्होंने केवल भव-प्रत्यय वैक्रिय शरीर को लेकर ही वैक्रिय - काययोग तथा वैक्रिय - मिश्र - काययोग में क्रम से उक्त चार और तीन गुणस्थान बतलाये हैं। '
वेद - इनमें ९ गुणस्थान माने जाते हैं, सो इस अपेक्षा से कि तीनों
१. (प्राचीन बन्ध-स्वामित्व टीका पृ. १०९ ) -
'मिच्छे सासाणे वा अविरयसम्मम्मि अहव गहियम्मि
जंति जिया परलोप, सेसेक्तरसगुणे मोत्तुं ॥ | १ ||
अर्थात् जीव मर कर परलोक में जाते हैं, तब वे पहले, दूसरे या चौथे गुणस्थान को ग्रहण किये हुये होते हैं, परन्तु इन तीन के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों को ग्रहण कर परलोक के लिये कोई जीव गमन नहीं करता ।
२. ( औपपातिक सूत्र पृ. ९६ )
३. वेद मार्गणा से लेकर आहारक मार्गणा, जो १९वीं गाथा में निर्दिष्ट है, वहाँ तक सब मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थान ही का कथन किया गया है— बन्ध-स्वामित्व का अलग-अलग कथन नहीं किया है । परन्तु १९वीं गाथा के अन्त में 'नियनिय गुणो हो'
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