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कर्मग्रन्थभाग-३
मिश्रज्ञान को ज्ञान मान कर मिश्रज्ञानी जीवों की गिनती ज्ञानी जीवों में की जाती है। अतएव उस समय पहले और दूसरे दो गुणस्थान के सम्बन्धी जीव ही अज्ञानी समझने चाहिये। पर जब दृष्टि की अशुद्धि की अधिकता के कारण मिश्रज्ञान में अज्ञानत्व की मात्रा अधिक होती है और दृष्टि की शद्धि की कमी के कारण ज्ञानत्व की मात्रा कम, तब उस मिश्रज्ञान को अज्ञान मान कर मिश्रज्ञानी जीवों की गिनती अज्ञानी जीवों में की जाती है। अतएव उस समय पहले, दूसरे और तीसरे इन तीनों गुणस्थानों के सम्बन्धी जीव अज्ञानी समझने चाहिये। चौथे से लेकर आगे के सब गुणस्थानों के समय सम्यक्त्व-गुण के प्रकट होने से जीवों की दृष्टि शुद्ध ही होती है-अशुद्ध नहीं, इसलिये उन जीवों का ज्ञान ज्ञानरूप ही (सम्यग्ज्ञान) माना जाता है, अज्ञान नहीं। किसी के ज्ञान की यथार्थता या अयथार्थता का निर्णय, उसकी दृष्टि (श्रद्धात्मक परिणाम) की शुद्धि या अशुद्धि पर निर्भर है।'
अचक्षुर्दर्शन और चक्षुर्दर्शन- इनमें पहले १२ गुणस्थान हैं। इनका बन्ध-स्वामित्व, सामान्यरूप से या प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है।
यथाख्यातचारित्र- इसमें अन्तिम ४ गुणस्थान हैं। उनमें से चौदहवें गुणस्थान में तो योग का अभाव होने से बन्ध होता ही नहीं। ग्यारहवें आदि तीन गणस्थानों में बन्ध होता है, पर सिर्फ सातावेदनीय का। इसलिये इस चारित्र में सामान्य और विशेष रूप से एक प्रकृति का ही बन्ध-स्वामित्व समझना
चाहिये।।१७||
मणनाणि सग जयाई, समइयछेय चउदुन्नि परिहारे। केवलदुगि दोचरमा-ऽजयाइनव मइसुओहिदुगे।।१८।। मनोज्ञाने सप्त यतादीनि सामायिकच्छेदे चत्वारि द्वे परिहारे।
केवलद्विके द्वे चरमेऽ यतादीनि नव मतिश्रुतावधिद्विके।।१८।।
अर्थ-मन:पर्यायज्ञान में यत-प्रमत्तसंयत-आदि ७ अर्थात् छठे से बारहवें तक गुणस्थान है। सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रमत्तसंयत आदि ४ गुणस्थान हैं। परिहारविशुद्धचारित्र में प्रमत्तसंयत आदि दो गुणस्थान हैं। केवलद्विक में अन्तिम दो गुणस्थान हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि-द्विक में अयतअविरतसम्यग्दृष्टि आदि ९ अर्थात् चौथे से बारहवें तक गुणस्थान हैं।।१८।।
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