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कर्मग्रन्थभाग-३
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क्षायिक- यह चौथे से चौदहवें तक ११ गुणस्थानों में पाया जा सकता है। इसमें भी आहारक-द्विक का बन्ध हो सकता है। इसलिये इसका बन्धस्वामित्व, सामान्यरूप से ७९ प्रकृतियों का और चौथे आदि प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान है।
मिथ्यात्व-त्रिक- इसमें एक गुणस्थान है--मिथ्यात्व मार्गणा में पहला, सास्वादन मार्गणा में दूसरा और मिश्रदृष्टि में तीसरा गुणस्थान है। अतएव इस त्रिक का सामान्य व विशेष बन्ध-स्वामित्व बराबर ही है; जैसे—सामान्य तथा विशेषरूप से मिथ्यात्व में ११७, सास्वादन में १०१ और मिश्रदृष्टि में ७४ प्रकृतियों का।
देशविरति और सूक्ष्मसम्पराय-ये दो संयम भी एक-एक गुणस्थान ही में माने जाते हैं। देशविरति, केवल पाँचवें गुणस्थान में और सूक्ष्मसम्पराय, केवल दसवें गुणस्थान में है। अतएव इन दोनों का बन्ध-स्वामित्व भी अपने-अपने गुणस्थान में कहे हुए बन्धाधिकार के समान ही है अर्थात् देशविरति का बन्धस्वामित्व ६७ प्रकृतियों का और सूक्ष्मसम्पराय का १७ प्रकृतियों का है। ___ आहारकमार्गणा- इसमें तेरह गुणस्थान माने जाते हैं। इसका बन्धस्वामित्व सामान्यरूप से तथा अपने प्रत्येक गणस्थान में बन्धाधिकार के समान है।।१९।। 'उपशम सम्यक्त्व के सम्बन्ध में कुछ विशेषता दिखाते हैं'
परमुवसमि वटुंता, आउ न बंधंति तेण अजयगुणे। देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुण सुराउ विणा ।।२०।। परमुपशमे वर्तमाना आयुर्न बध्नन्ति तेनायतगुणे। देवमनुजायुहीनो देशादिषु पुनः सुरायुर्विना।।२०।।
अर्थ-उपशम सम्यक्त्व में वर्तमान जीव आयु-बन्ध नहीं करते, इससे अयत-अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान में देव आयु तथा मनुष्य आयु को छोड़कर अन्य प्रकृतियों का बन्ध होता है और देशविरति आदि गुणस्थानों में देव आयु के बिना अन्य स्वयोग्य प्रकृतियों का बन्ध होता है। १. इस गाथा के विषय को स्पष्टता के साथ प्राचीन बन्धस्वामित्व में इस प्रकार कहा है'उवसम्मे वटुंता, चउण्हमिक्कंपि आउयं नेय। वंधंति तेण अजया, सुरनर आउहिं ऊणन्तु।।५१।। ओघो देस जयाइस, सुराउहीणो उ जाव उवसंतो' इत्यादि।।५२।।
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