Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 313
________________ परिशिष्ट 'गुणस्थान' शब्द का समानार्थक दूसरा शब्द श्वेताम्बर साहित्य में देखने में नहीं आता; परन्तु दिगम्बर-साहित्य में उसके पर्याय शब्द पाये जाते हैं; जैसेसंक्षेप, ओघ, सामान्य और जीवसमास। (गोम्मटसार जी.गा. ३-१०) 'ज्ञान आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होने वाले जीव के स्वरूप, गुणस्थान हैं।' गुणस्थान की यह व्याख्या श्वेताम्बर ग्रन्थों में देखी जाती है। दिगम्बर ग्रन्थों में उसकी व्याख्या इस प्रकार है-'दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की उदय आदि अवस्थाओं के समय, जो भाव होते हैं उनसे जीवों का स्वरूप जाना जाता है; इसलिये वे भाव, गुणस्थान कहलाते हैं।' __ (गो.जी.गा. ८) सातवें आदि गुणस्थानों में वेदनीयकर्म की उदीरणा नहीं होती, इससे उन गुणस्थानों में आहारसंज्ञा को गोम्मटसार (जीवकाण्ड गा. १३८) में नहीं माना गया है। परन्तु उक्त गुणस्थानों में उस संज्ञा को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती, क्योंकि उन गुणस्थानों में असातावेदनीय के उदय आदि अन्य कारणों का सम्भव है। देशविरति के ११ भेद गोम्मटसार (जी.गा. ४७६) में हैं; जैसे-१. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. प्रोषध, ५. सचित्तविरति, ६. रात्रिभोजनविरति, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भविरति, ९. परिग्रहविरति, १०. अनुमतिविरति, और ११. उद्दिष्टविरति। इसमें 'प्रोषध' शब्द श्वेताम्बर सम्प्रदाय-प्रसिद्ध ‘पौषध' शब्द के स्थान में है। ___गुणस्थान के क्रम से जीवों के पुण्य, पाप दो भेद हैं। मिथ्यात्वी या मिथ्यात्वोन्मुख जीवों को पाप जीव और सम्यक्त्वी जीवों को पुण्यजीव कहा है। (गो. जी.गा. ६२१) उदयाधिकार में प्रत्येक गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियों की जो संख्या कही हुई है, वह सब गोम्मटसार में उल्लिखित भूतबलि आचार्य के मत के साथ मिलती है। परन्तु उसी ग्रन्थ (कर्म.गा. २६३-२६४) में जो यतिवृषभाचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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