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परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - ३
वायुवनस्पतयः स्थावराः । ' तत्त्वार्थ अ. २ - १३ तथा उसकी सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक ।
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(३) पंचसंग्रह ( श्री चन्द्रमहत्तर रचित)
मूल तथा टीका का सारांश इतना ही है कि आहारकद्विक, नरक - त्रिक और देवायु इन छः प्रकृतियों के अतिरिक्त ११४ प्रकृतियों का बन्ध, औदारिकमिश्र - काययोग में होता है। औदारिक- मिश्र - काययोग के समय मनः पर्याप्ति पूर्ण न बन जाने के कारण ऐसे अध्यवसाय नहीं होते जिनसे कि नरकायु तथा देवायु का बन्ध हो सकता है। इसलिये इन दो बन्ध उक्त योग्य में भले ही न हो, पर तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध उक्त योग में होता है क्योंकि इन दो आयुओं के बन्ध-योग्य अध्यवसाय उक्त योग में पाये जा सकते हैं।
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२. आहारककाययोग में ६३ प्रकृतियों का बन्ध गा. १५वीं में निर्दिष्ट है । इस विषय में पञ्चसंग्रहकार का मत भिन्न है। वे आहारक काययोग में ५७ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं। 'सगबत्रा तेवडी, बंधइ आहार उभयेसु ।' (४-१५६)
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