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परिशिष्ट क
(१) गोम्मटसार के देखने योग्य स्थल
तीसरे कर्मग्रन्थ का विषयगुणस्थान को लेकर मार्गणाओं में बंध - स्वामित्व का कथन - गोम्मटसार में है, जो कर्मकाण्ड गा. १०५ से १२१ तक है। इसके जानने के लिये जिन बातों का ज्ञान पहले आवश्यक है उनका संकेत गा. ९४ से १०४ तक है।
गुणस्थान को लेकर मार्गणाओं में उदय - स्वामित्व का विचार, जो प्राचीन या नवीन तीसरे कर्मग्रन्थ में नहीं वह गोम्मटसार में है। इसका प्रकरण कर्मकाण्ड गा. २९० से ३३२ तक है। इसके लिये जिन संकेतों का जानना आवश्यक है वे गा. २६३ से २८९ तक में संगृहीत हैं। इस उदय - स्वामित्व के प्रकरण में उदीरणा - स्वामित्व का विचार भी सम्मिलित है।
गुणस्थान को लेकर मार्गणाओं में सत्ता - स्वामित्व का विचार भी गोम्मटसार में है, पर कर्मग्रन्थ में नहीं। यह प्रकरण कर्मकाण्ड गा. ३४६ से ३५६ तक है। इसके संकेत गा. ३३३ से ३४५ तक में है।
(२) श्वेताम्बर - दिगम्बर सम्प्रदाय के समान असमान कुछ मन्तव्य । (१) कर्मग्रन्थ में तीसरे गुणस्थान में आयु का बन्ध नहीं माना जाता वैसा ही गोम्मटसार में भी । गा. ८ की टिप्पणी पृ. १५ ।
(२) पृथ्वीकाय आदि मार्गणाओं में दूसरे गुणस्थान में ९६ और ९४ प्रकृतियों का बन्ध, मत-भेद से कर्मग्रन्थ में हैं। गोम्मटसार में केवल ९४ प्रकृतियों का बन्ध वर्णित है। गा. १२ की टिप्पणी पृ. ३१-३२।
एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार इन्द्रिय मार्गणाओं में तथा पृथ्वी जल और वनस्पति तीन कायमार्गणाओं में पहला दूसरा दो गुणस्थान कर्मग्रन्थ में माने हुए हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्ड को यही पक्ष सम्मत है; यह बात कर्म.गा. ११३११५ तक का विषय देखने से स्पष्ट हो जाती है । परन्तु सर्वार्थसिद्धिकार का इस विषय में भिन्न मत है। वे एकेन्द्रिय आदि उक्त चार इन्द्रिय मार्गणाओं में और पृथ्वीकाय आदि उक्त तीन कायमार्गणाओं में पहला ही गुणस्थान मानते हैं। (इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियादिषु चतुरिन्द्रियपर्यन्तेषु एकेमेवं मिथ्यादृष्टिस्थानम्;
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