Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 272
________________ परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग-१ २०१ गोम्मटसार में दी हुई उपपत्ति भी लगभग वैसी ही है, परन्तु उसमें जानने योग्य बात यह है-अन्तराय-कर्म, घाति होने पर भी सबसे पीछे-अर्थात् अघातिकर्म के पीछे है कहने का आशय इतना ही है कि वह कर्म घाति होने पर भी अघाति कर्मों की तरह जीव के गुण का सर्वथा घात नहीं करता तथा उसका उदय, नाम आदि अघातिकर्मों के निमित्त से होता है तथा वेदनीय अघाति होने पर भी उसका पाठ घातिकर्मों के बीच, इसलिये किया गया है कि वह घातिकर्म की तरह मोहनीय के बल से जीव के गुण का घात करता है-देखो, क.गा. १७-१९। ____ अर्थावग्रह के नैश्चयिक और व्यावहारिक दो भेद शास्त्र में उल्लिखित पाये जाते हैं-(देखो तत्त्वार्थ-टीका पृ. ५७)। जिनमें से नैश्चयिक अर्थावग्रह, उसे समझना चाहिये जो व्यंजनावग्रह के बाद, पर ईहा के पहले होता है तथा जिसकी स्थिति एक समय की बतलाई गई है। व्यावहारिक अर्थावग्रह, अवाय (अपाय) को कहते हैं; पर सब अवाय को नहीं किन्तु जो अवाय ईहा को उत्पन्न करता है उसी को। किसी वस्तु का अव्यक्त ज्ञान (अर्थावग्रह) होने के बाद उसके विशेष धर्म का निश्चय करने के लिये ईहा (विचारणा या सम्भावना) होती है अनन्तर उस धर्म का निश्चय होता है वही अवाय कहलाता है। एक धर्म का अवाय हो जाने पर फिर दूसरे धर्म के विषय में ईहा होती है और पीछे से उसका निश्चय भी हो जाता है। इस प्रकार जो जो अवाय, अन्य धर्म विषयक ईहा को पैदा करता है वह सब, व्यावहारिक अर्थावग्रह में परिगणित है। केवल उस अवाय को अवग्रह नहीं कहते जिसके अनन्तर ईहा उत्पन्न न होकर धारणा ही होती है। अवाय को अर्थावग्रह कहने का सबब इतना ही है कि यद्यपि है वह किसी विशेष धर्म का निश्चयात्मक ज्ञान ही, तथापि उत्तरवर्ती अवाय की अपेक्षा पूर्ववर्ती अवाय, सामान्य विषयक होता है। इसलिये वह सामान्य विषयक-ज्ञानत्वरूप से नैश्चयिक अर्थावग्रह के तुल्य है। अतएव उसे व्यावहारिक अर्थावग्रह कहना असंगत नहीं। यद्यपि जिस शब्द के अन्त में विभक्ति आई हो उसे या जितने भाग में अर्थ की समाप्ति होती हो उसे पद कहा है, तथापि पद-श्रुत में पद का मतलब ऐसे पद से नहीं है, किन्तु सांकेतिक पद से है। आचाराङ्ग आदि आगमों का प्रमाण ऐसे ही पदों से गिना जाता है (देखो, लोकप्रकाश, स. ३ श्लो. ८२७)। कितने श्लोकों का यह सांकेतिक पद माना जाता है इस बात का पता तादृश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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