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परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - १
'सुत्ते
संघयणमिहट्ठिनिचउत्ति'
( प्राचीन तृतीय कर्मग्रन्थ - टीका पृ. ९९ )
कर्मविषयक साहित्य की कुछ ऐसी संज्ञाएँ आगे दी जाती हैं कि जिनके अर्थ में श्वेताम्बर-दिगम्बर - साहित्य में थोड़ा बहुत भेद दृष्टिगोचर होता है।
दिगम्बर
सत्तिविसेसो
श्वेताम्बर
प्रचलाप्रचलानिद्रा, वह है जो मनुष्य चलते फिरते भी आती है।
को
निद्रा, उस निद्रा को कहते हैं जिसमें सोता हुआ मनुष्य अनायास उठाया जा सके।
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निर्माणनामकर्म का कार्य अङ्गोपाङ्गों को अपने - अपने स्थान में व्यवस्थित करना इतना ही माना गया है।
आनुपूर्वीनामकर्म, समश्रेणि से गमन करते हुए जीव को खींच कर उसे उसके विणिपतित उत्पत्ति-स्थान को पहुँचाता है।
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प्रचला, वह निद्रा है जो खड़े हुए या बैठे प्रचला - इसके उदय से प्राणी नेत्र को हुए प्राणी को भी आती है। थोड़ा मूँद कर सोता है, सोता हुआ भी | थोड़ा ज्ञान करता रहता है और बार-बार | मन्द निद्रा लिया करता है
( कर्म.गा. २५) ।
गतिनामकर्म से मनुष्य नारक - आदि पर्याय गतिनामकर्म, उस कर्म प्रकृति को कहा की प्राप्ति मात्र होती है। है जिसके उदय से आत्माभवान्तर को जाता है।
प्रचलाप्रचला - इसका उदय जिस | आत्मा को होता है उसके मुँह से लार टपकती है तथा उसके हाथ-पाँव | आदि अंग काँपते हैं।
निद्रा - इसके उदय से जीव चलतेचलते खड़ा रह जाता है और गिर भी | जाता है- (देखो, कर्म.गा. २४) |
निर्माणनामकर्म- इसके स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण ऐसे दो भेदमान | कर इनका कार्य अंगोपाङ्गो को यथास्थान व्यवस्थित करने के उपरान्त उनको प्रमाणोपेत बनाना भी माना गया है ।
आनुपूर्वीनामकर्म – इसका प्रयोजन पूर्व शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर धारण करने के पहले - अर्थात् अन्तराल
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