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परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग-१
गति में जीव का आकार पूर्व शरीर के
समान बनाये रखना है। उपघातनामकर्म-मतभेद से इसके दो कार्य उपघात नामकर्म-इसके उदय से प्राणी हैं। पहला तो यह कि गले में फांसी लगा | फाँसी आदि से अपनी हत्या कर लेता कर या कहीं ऊँचे से गिरकर अपने ही और दुःख पाता। आप आत्म-हत्या की चेष्टा द्वारा दुःखी होना, दूसरा, पड़जीभ, रसौली, छठी उँगली, बाहर निकले हुए दाँत आदि से तकलीफ पाना (श्रीयशोविजयजी कृत,कम्मपयडी-व्याख्या पृ. ५)। शुभनामकर्म से नाभि के ऊपर के अवयव शुभनाम--यह कर्म, रमणीयता का शुभ होते हैं।
कारण है। अशुभनामकर्म के उदय से नाभि के ऊपर अशुभनामकर्म, इसका उदय कुरूप का के अवयव अशुभ होते हैं।
कारण है। स्थिरनामकर्म के उदय से सिर, हड्डी, दाँत स्थिरनामकर्म, इसके उदय से शरीर में आदि अवयवों में स्थिरता आती है। तथा धातु-उपधातु में स्थिरभाव बना
रहता है जिससे कि उपसर्ग-तपस्या आदि
जन्य कष्ट सहन किया जा सकता है। अस्थिरनामकर्म-सिर, हड्डी, दाँत आदि |अस्थिर नामकर्म, इस से अस्थिर भाव अवयवों में अस्थिरता उसी कर्म से आती |पैदा होता है जिससे थोड़ा भी कष्ट
| सहन किया नहीं जा सकता। जो कुछ कहा जाय उसे लोग प्रमाण |आदेयनामकर्म, इसके उदय से शरीर, समझ कर मान लेते और सत्कार आदि प्रभा-युक्त बनता है। इसके विपरीत करते हैं, यह आदेयनामकर्म का फल है अनादेयनाम कर्म से शरीर, प्रभा-हीन अनादेय कर्म का कार्य, उस से उलटा ही होता है। है-अर्थात् हितकारी, वचन को भी लोग प्रमाणरूप नहीं मानते और न सत्कार आदि ही करते हैं। दान-तप-शौर्य-आदि-जन्य यश से जो यश: कीर्तिनामकर्म, यह पुण्य और प्रशंसा होती है उसका कारण यश:- गुणों के कीर्तन का कारण है।
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