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परिशिष्ट
प्रकृति - भेद - इसमें प्रकृति शब्द के दो अर्थ किये गये हैं
१. स्वभाव और २. समुदाय । श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्य में ये दोनों अर्थ पाये जाते हैं। यथा
प्रकृतिस्तु
यथा
तथा
स्वभावः
ज्ञानाच्छादनादिः
ठिइबंधदलस्स ताणरसो
ठिइ अणुभागो
स्याद् स्थिति:
ज्ञानावृत्यादिकर्मणाम् । कालविनिश्चयः ।।
( लोकप्रकाश स. १० श्लो. १३७)
पएसबंधो पएसगहणं जं । पगइबंधो । । १ । । (प्राचीन)
तस्समुदायो तस्समुदायो
परन्तु दिगम्बरीय साहित्य में प्रकृति शब्द का केवल स्वभाव अर्थ ही
उल्लिखित मिलता है। यथा
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'प्रकृति: स्वभाव:' इत्यादि ।
'प्रकृतिः स्वभाव इत्यनर्थान्तरम्'
'पयडी सीलसहावो' इत्यादि ।
(तत्त्वार्थ अ. ८ - सू. ३ सर्वार्थसिद्धि )
(तत्त्वार्थ अ. ८ सू. ३ राजवार्त्तिक)
( कर्मकाण्ड गा. २)
इसमें जानने योग्य बात यह है कि स्वभाव - अर्थ - पक्ष में तो अनुभागबन्ध का मतलब कर्म की फल- जनक शक्ति की शुभाशुभता तथा तीव्रता - मन्दता से ही है, परन्तु समुदाय - अर्थ - पक्ष में यह बात नहीं। उस पक्ष में अनुभागबन्ध से कर्म की फल - जनक शक्ति और उसकी शुभाशुभता तथा तीव्रता - मन्दता इतना अर्थ विवक्षित है। क्योंकि उस पक्ष में कर्म का स्वभाव (शक्ति) अर्थ भी अनुभागबन्ध शब्द से ही लिया जाता है।
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