Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 271
________________ परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - १ कर्म के मूल आठ तथा उत्तर १४८ भेदों का जो कथन है, सो माध्यमिक विवक्षा से; क्योंकि वस्तुतः कर्म के असंख्यात प्रकार हैं । कारणभूत अध्यवसायों में असंख्यात प्रकार का तरतमभाव होने से तज्जन्य कर्मशक्तियाँ भी असंख्यात प्रकार की ही होती हैं, परन्तु उन सबका वर्गीकरण, आठ या १४८ भागों में इसलिये किया है कि जिससे सर्वसाधारण को समझने में आसानी हो, यही बात गोम्मटसार में भी कही है तं पुण अट्टविहं वा अडदालसयं असंखलोगं वा । ताणं पुण घादित्ति अघादित्ति य होंति सण्णाओ ।। (कर्मकाण्ड – गा. ७) २०० आठ कर्म-प्रकृतियों के कथन का जो क्रम है उसकी उपपत्ति पञ्चसंग्रह की टीका में, कर्म विपाक की टीका में, श्री जयसोम सूरि-कृत टब्बे में तथा श्री जीवविजयजी - - कृत बालावबोध में इस प्रकार दी हुई है उपयोग, यह जीव का लक्षण है, इसके ज्ञान और दर्शन दो भेद हैं जिनमें से ज्ञान प्रधान माना जाता है। ज्ञान से कर्मविषयक शास्त्र का या किसी अन्य शास्त्र का विचार किया जा सकता है। जब कोई भी लब्धि प्राप्त होती है तब जीव ज्ञानोपयोग- युक्त ही होता है। मोक्ष की प्राप्ति भी ज्ञानोपयोग के समय में ही होती है। अतएव ज्ञान के आवरण -भूत कर्म - ज्ञानावरण का कथन सबसे पहले किया गया है। दर्शन की प्रवृत्ति, मुक्त जीवों को ज्ञान के अनन्तर होती है; इसी से दर्शनावरणीय कर्म का कथन पीछे किया है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मों के तीव्र उदय से दुःख का तथा उनके विशिष्ट क्षयोपशम से सुख का अनुभव होता है; इसलिये वेदनीयकर्म का कथन, उक्त दो कर्मों के बाद किया है। वेदनीयकर्म के अनन्तर मोहनीयकर्म के कहने का आशय यह है कि सुख-दु:ख वेदने के समय अवश्य ही राग-द्वेष का उदय हो जाता है। मोहनीय के अनन्तर आयु का पाठ इस लिये है कि मोह - ह-व्याकुल जीव आरम्भ आदि करके आयु का बन्ध करता ही है। जिसको आयु का उदय हुआ उसे गति आदि नामकर्म भी भोगने पड़ते ही हैं— इसी बात को जानने के लिये आयु के पश्चात् नामकर्म का उल्लेख है। गति आदि नामकर्म के उदय वाले जीव को उच्च या नीचगोत्र का विपाक भोगना पड़ता है इसी से नाम के बाद गोत्रकर्म है। उच्च गोत्र वाले जीवों को दानान्तराय आदि का क्षयोपशम होता है और नीचगोत्र - विपाकी जीवों को दानान्तराय आदि का उदय रहता है— इसी आशय को बतलाने के लिये गोत्र के पश्चात् अन्तराय का निर्देश किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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