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परिशिष्ट कर्मग्रन्थ भाग - १
सम्प्रदाय नष्ट होने से नहीं चलता- ऐसा टीका में लिखा है पर कहीं यह लिखा मिलता है कि प्रायः ५१,०८, ८६, ८४० श्लोकों का एक पद होता है। पदश्रुत में पद शब्द का सांकेतित अर्थ दिगम्बर- साहित्य में भी लिया गया है। आचाराङ्ग आदि का प्रमाण ऐसे ही पदों से उसमें भी माना गया है, परन्तु उसमें विशेषता यह देखी जाती है कि श्वेताम्बर - साहित्य में पद के प्रमाण के सम्बन्ध में सब आचार्य, आम्नाय का विच्छेद दिखाते हैं, तब दिगम्बर - शास्त्र में पद का प्रमाण स्पष्ट लिखा पाया जाता है। गोम्मटसार में १६३४ करोड़, ८३ लाख, ७ हजार, ८८८ अक्षरों का एक पद माना है। बत्तीस अक्षरों का एक श्लोक मानने पर उतने अक्षरों के ५१,०८,८४,६२१॥ श्लोक होते हैं;
यथा
चेव ।
पदवण्णा ।।
(जीवकाण्ड. गा. ३३५)
इस प्रमाण में ऊपर लिखे हुए उस प्रमाण से बहुत फेर नहीं है जो श्वेताम्बर - शास्त्र में कहीं-कहीं पाया जाता है, इससे पद के प्रमाण के सम्बन्ध में श्वेताम्बर - दिगम्बर - साहित्य की एक वाक्यता ही सिद्ध होती है।
सोलससयचउतीसा
सत्तसहस्साट्ठसया
कोडी
अट्ठासीदी
तियसीदिलक्खयं
य
मन: पर्यायज्ञान के ज्ञेय (विषय) के सम्बन्ध में दो प्रकार का उल्लेख पाया जाता है। पहले में यह लिखा है कि मनःपर्याय ज्ञानी, मन: पर्यायज्ञान से दूसरों के मन में व्यवस्थित चिन्त्यमान पदार्थ को जानता है, परन्तु दूसरा उल्लेख यह कहता है कि मन: पर्यायज्ञान से चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान नहीं होता, किन्तु विचार करने के समय, मन की जो आकृतियाँ होती हैं उन्हीं का ज्ञान होता है और चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान पीछे से अनुमान द्वारा होता है। पहला उल्लेख दिगम्बरीय साहित्य का है - ( देखो, सर्वार्थसिद्धि पृ. १२४, राजवार्तिक पृ. ५८ और जीवकाण्ड-गा. ४३७-४४७) और दूसरा उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्य का है— (देखो, तत्त्वार्थ अ. १, सू. २४ टीका, आवश्यक गा. ७६ की टीका, विशेषावश्यकभाष्य पृ. ३९० गा. ८१३-८१४ और लोकप्रकाश स. ३ श्लो. ८४९ से)।
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अवधिज्ञान तथा मन: पर्यायज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गोम्मटसार का जो मन्तव्य है वह श्वेताम्बर - साहित्य में कहीं देखने में नहीं आया। वह मन्तव्य इस प्रकार है
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