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कर्मग्रन्थभाग-३
अर्थ-सब (चौदह) गुणस्थान वाले भव्य और संज्ञियों का बन्ध-स्वामित्व बन्धाधिकार के समान है। अभव्य और असंज्ञियों का बन्ध-स्वामित्व मिथ्यात्व मार्गणा के समान है। सास्वादन गुणस्थान में असंज्ञियों का बन्ध-स्वामित्व संज्ञी के समान है। अनाहारक मार्गणा का बन्ध-स्वामित्व कार्मण योग के बन्ध-स्वामित्व के समान है।।२३।।
भावार्थ भव्य और संज्ञी-ये चौदह गुणस्थानों के अधिकारी हैं। इसलिये इनका बन्ध-स्वामित्व, सब गुणस्थानों के विषय में बन्धाधिकार के समान ही है।
अभव्य-ये पहले गुणस्थान में ही वर्तमान होते हैं। इनमें सम्यक्त्व और चारित्र की प्राप्ति न होने के कारण तीर्थंकर नामकर्म तथा अहारक-द्विक के बन्ध का सम्भव ही नहीं है। इसलिये ये सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म आदि उक्त तीन प्रकृतियों को छोड़कर १२० में से शेष ११७ प्रकृतियों के बन्ध के अधिकारी हैं।
असंज्ञी- ये पहले दूसरे दो गुणस्थानों में वर्तमान पाये जाते हैं। पहले गुणस्थान में इनका बन्ध-स्वामित्व मिथ्यात्व के समान है, पर दूसरे गुणस्थान में संज्ञी के समान, अर्थात् ये असंगी, सामान्यरूप से तथा पहिले गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म आदि उक्त तीन प्रकृतियों को छोड़कर, शेष ११७ प्रकृतियों के बन्धाधिकारी हैं और दूसरे गुणस्थान में १०१ प्रकृतियों के।
अनाहरक-यह मार्गणा पहले, दूसरे, चौथे, तेरहवें और चौदहवें-इन ५ गुणस्थानों में पाई जाती है। इनमें से पहला, दूसरा, चौथा ये तीन गुणस्थान उस समय होते हैं जिस समय कि जीव दूसरे स्थान में पैदा होने के लिये विग्रह गति से जाते हैं, उस समय एक दो या तीन समयपर्यन्त जीव को औदारिक आदि स्थूल शरीर नहीं होते इसलिये अनाहारक अवस्था रहती है। तेहरवें गुणस्थान में केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में अनाहारकत्व १. यथा-'पड़मंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुण।' (चतुर्थ कर्मग्रन्थ.
गाथा. २३) यही बात गोम्मटसार में इस प्रकार कही गई है“विग्गहगदिमावष्णा, केवलिणो समुग्धदो अजोगीय।। सिध्या य अणाहारा, सेसा आहारया जीवा।।' (जीव.गा. ६६५) अर्थात् विग्रह-गति में वर्तमान जीव, समुद्घात वाले केवली, अयोगि-केवली और सिद्ध-ये अनाहारक हैं। इनके सिवाय शेष सब जीव आहारक हैं।
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