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कर्मग्रन्थभाग-३
तक प्रत्येक गुणस्थान में बंधाधिकार के समान बंध-स्वामित्व जानना चाहिए।।१८॥ 'दो गाथाओं से सम्यक्त्व मार्गणा का बंधस्वामित्व।'
अडउवसमि चउवेयगि, खइयेइक्कार मिच्छतिगिदेसे। सुहुमि सठाणं तेरस, आहारगि नियनियगुणोहो।।१९।। अष्टोपशमे चत्वारि वेदके क्षायिक एकादश मिथ्यात्वत्रिके देशे। सूक्ष्मे स्वस्थानं त्रयोदशाऽऽहारके निजनिजगुणौघः।।१९।।
अर्थ-उपशम सम्यक्त्व में चौथे से ग्यारहवें आठ- तक गुणस्थान हैं। वेदक (क्षायोपशमिक) में ४ गुणस्थान—चौथे से सातवें तक हैं। मिथ्यात्व-त्रिक में (मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्रदृष्टि में), देशविरति में और सूक्ष्मसम्पराय में अपना-अपना एक ही गुणस्थान है। आहारक मार्गणा में १३ गुणस्थान हैं। वेद त्रिक से लेकर यहाँ तक की सब मार्गणाओं का बन्ध-स्वामित्व अपने-अपने गुणस्थानों के विषय में ओघ-बन्धाधिकार के समान है।।१९।।
भावार्थ उपशम सम्यक्त्व- यह सम्यक्त्व, देशविरति, प्रमत्तसंयत-विरति या अप्रमत्तसंयत-विरति के साथ भी प्राप्त होता है। इसी कारण इस सम्यक्त्व में चौथे से सातवें तक ४ गुणस्थान माने जाते हैं। इसी प्रकार आठवें से ग्यारहवें तक ४ गुणस्थानों में वर्तमान उपशम श्रेणीवाले जीव को भी यह सम्यक्त्व रहता है। इसलिये इसमें सब मिलाकर ८ गुणस्थान कहे हुए हैं। इस सम्यक्त्व के समय आयु का बन्ध नहीं होता यह बात अगली गाथा में कही जायगी। इससे चौथे गुणस्थान में जो देव आयु, मनुष्य आयु दोनों का बन्ध नहीं होता और पाँचवें आदि गुणस्थान में देव आयु का बन्ध नहीं होता। अतएव इस सम्यक्त्व में सामान्यरूप से ७७ प्रकृतियों का, चौथे गुणस्थान में ७५, पाँचवें में ६६, छठे में ६२, सातवें में ५८, आठवें में ५८-५६-२६, नवें में २२-२१-२०-१९-१८, दसवें में १७ और ग्यारहवें गुणस्थान में १ प्रकृति का बन्ध-स्वामित्व है।
वेदक- यह सम्यक्त्व सम्भव चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में है। इसमें आहारक-द्विक के बन्ध का सम्भव है जिससे इसका बन्ध-स्वामित्व, सामान्यरूप से ७९ प्रकृतियों का, विशेष रूप से–चौथे गुणस्थान में ७७, पाँचवें में ६७, छठे में ६३ और सातवें में ५९ या ५८ प्रकृतियों का है।
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