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कर्मग्रन्थभाग-३
१९१
अर्थ-तेजोलेश्या का बन्ध-स्वामित्व नरक-नवक-नरक त्रिक, सूक्ष्मत्रिक और विकल-त्रिक-के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का है। उद्योत-चतुष्क (उद्योत नामकर्म, तिर्यञ्च-द्विक, तिर्यश्च आयु) और नरक-द्वादश (नरकत्रिक, सूक्ष्मत्रिक विकलत्रिक, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप) इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर अन्य सब प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व शुक्ललेश्या में है। उक्त नरक-द्वादश के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध पद्मलेश्या में होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में तेज आदि उक्त तीन लेश्याओं का बन्धस्वामित्व तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारक-द्विक को छोड़कर समझना।।२२।।
भावार्थ तेजोलेश्या- यह लेश्या, पहले सात गुणस्थानों में पायी जाती है। इसके धारण करने वाले उपर्युक्त नरक आदि ९ प्रकृतियों को बाँध नहीं सकते। क्योंकि उक्त ९ प्रकृतियाँ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओं से ही बाँधी जाती हैं। इस लिये तेजोलेश्या वाले, उन स्थानों में पैदा नहीं होते जिनमें-नरकगति, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में-उक्त ९ प्रकृतियों का उदय होता है। अतएव तेजोलेश्या में सामान्यरूप से १११ प्रकृतियों का, पहले गुणस्थान में तीर्थङ्करनामकर्म और आहारक-द्विक के अतिरिक्त १११ में से शेष १०८ का
और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के अनुसार बन्धस्वामित्व है।
पद्मलेश्या- यह भी पहले सात ही गुणस्थानों में पायी जाती है। तेजोलेश्या से इसमें विशेषता यह है कि इसके धारण करने वाले उक्त नरकनवक के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप इन तीन प्रकृतियों को नहीं बाँधते। इसी से पद्मलेश्या के सामान्य बन्ध में १२ प्रकृतियाँ छोड़कर १०८ प्रकृतियाँ गिनी जाती हैं। तेजोलेश्या वाले, एकेन्द्रियरूप से पैदा हो सकते हैं, पर पद्मलेश्या वाले नहीं। इसी कारण एकेन्द्रिय आदि उक्त तीन प्रकृतियाँ भी वर्जित हैं। अतएव पद्मलेश्या का बन्धस्वामित्व, सामान्यरूप से १०८ प्रकृतियों
गोयमा! णो णेरइयाउयं पकरेन्ति, णो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेन्ति, णो मणुस्साउयं पकरेन्ति णो देवाउयं पकरेन्ति। अकिरियावादी अणणियवादी वेणइयवादी चउन्विर्हपि पकरेन्ति। जहा कण्हलेस्सा एवं णीललेस्सावि काउलेस्सावि। जहा पंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं वत्तब्बा भणिया एवं मणुस्साणवि भाणियव्वा।।
इस पाठ के 'किरियावादी' शब्द का अर्थ टीका में क्रियावादी-सम्यक्त्वी-किया गया है।
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