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कर्मग्रन्थभाग-३
१८३
अर्थ संज्वलन-त्रिक (संज्वलन क्रोध, मान, माया) में ९ गुणस्थान हैं। संज्वलन लोभ में १० गुणस्थान हैं। (संयम, ज्ञान और दर्शन मार्गणा का बन्धस्वामित्व)--अविरति में ४ गुणस्थान हैं। अज्ञान-त्रिक में-मति अज्ञान, श्रुत
अज्ञान, विभंगज्ञान में-दो या तीन गुणस्थान हैं। अचक्षुर्दर्शन और चक्षुर्दर्शन में पहले १२ गुणस्थान हैं। यथाख्यातचारित्र में अन्तिम ४ अर्थात् ग्यारहवें से चौदहवें तक गुणस्थान हैं।।१७।।
भावार्थ संज्वलन- ये कषाय ४ हैं। जिनमें से क्रोध, मान और माया में ९ तथा लोभ में १० गुणस्थान हैं। इन चारों कषायों का बन्ध-स्वामित्व सामान्यरूप से और विशेषरूप से अपने-अपने गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान ही है।
अविरति- इसमें पहले ४ गुणस्थान हैं। जिनमें से चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने के कारण तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध सम्भव है, परन्तु आहारकद्विक का बन्ध-जो कि संयम-सापेक्ष है इसमें नहीं हो सकता। इसलिये अविरति में सामान्यरूप से आहारकद्विक के अतिरिक्त ११८, पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१, तीसरे में ७४ और चौथे में ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है।
अज्ञान त्रिक- इसमें दो या तीन गुणस्थान हैं। इसलिये इसके सामान्यबन्ध में से जिननामकर्म और आहारकद्विक, ये तीन प्रकृतियाँ कम कर दी गई हैं। जिससे सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में ११७, दूसरे में १०१ और तीसरे में ७४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व है।
अज्ञान-त्रिक में दो या तीन गुणस्थान' माने जाने का आशय यह है कि 'तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीवों की दृष्टि न तो सर्वथा शुद्ध होती है और न सर्वथा अशुद्ध, किन्तु किसी अंश में शुद्ध तथा किसी अंश में अशुद्ध-मिश्र होती है। इस मिश्र दृष्टि के अनुसार उन जीवों का ज्ञान भी मिश्र रूप-किसी अंश में ज्ञानरूप तथा किसी अंश में अज्ञानरूप-माना जाता है। जब दृष्टि की शुद्धि की अधिकता के कारण मिश्रज्ञान में ज्ञानत्व की मात्रा अधिक होती है और दृष्टि की अशुद्धि की कमी के कारण अज्ञानत्व की मात्रा कम, तब उस १. इसका और भी खुलासा चौथे कर्मग्रन्थ में बीसवीं गाथा की व्याख्या में देखें। २. जो, मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में आता है, उसकी मिश्रदृष्टि में
मिथ्यात्वांश अधिक होने से अशुद्धि विशेष रहती है, और जो सम्यक्त्व को छोड़ तीसरे गुणस्थान में आता है, उसकी मिश्रदृष्टि में सम्यक्त्वांश होने से शुद्धि विशेष रहती है।
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