Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कर्मग्रन्थभाग- ३
'इस गाथा में पञ्चेन्द्रिय जाति, त्रसकाय और गतित्रस का बन्धस्वामित्व कहकर १६वीं गाथा तक योग मार्गणा के बन्ध - स्वामित्व का विचार करते हैं । ' ओहु पणिदितसेगइ - तसे जिणिक्कार नरतिगुञ्च विणा मणवयजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से । । १३ ।। ओघः पञ्चेन्द्रियत्रसे गतित्रसे जिनैकादश नरत्रिकोच्चं विना । मनोवचोयोगे ओघ औदारिके नरभंगस्तन्मिश्रे । । १३ ।।
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अर्थ-पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय में ओघ - बन्धाधिकार के समानप्रकृतिबन्ध जानना । गतित्रस (तेज: काय और वायुकाय) में जिनएकादश-जिन नामकर्म से लेकर नरकत्रिक पर्यन्त ११ - मनुष्यत्रिक और उञ्चगोत्र इन १५ को छोड़, १२० में से शेष १०५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। (योगमार्गणा बन्धस्वामित्व) मनोयोग तथा वचनयोग में अर्थात् मनोयोग वाले तथा मनोयोग सहित वचनयोग वाले जीवों में बन्धाधिकार के समान प्रकृति-बन्ध समझना । औदारिक काययोग में अर्थात् मनोयोग वचनयोग सहित औदारिक काययोग वालों में नरभंग - पर्याप्त मनुष्य के समान बन्ध-स्वामित्व समझना ।। १३ ।।
भावार्थ-पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय का बन्ध-स्वामित्व बन्धाधिकार के समान कहा हुआ है, इसका मतलब यह है कि 'जैसे दूसरे कर्मग्रन्थ में बन्धाधिकार में सामान्यरूप से १२० और विशेषरूप से - तेरह गुणस्थानों मेंक्रम से ११७, १०१, ७४, ७७ इत्यादि प्रकृतियों का बन्ध कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय में भी सामान्यरूप से १२० तथा तेरह गुणस्थानों में क्रम से ११७, १०१ आदि प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिये।'
इसी तरह आगे भी जिस मार्गणा में बन्धाधिकार के समान बन्ध-स्वामित्व कहा जाय वहाँ उस मार्गणा में जितने गुणस्थानों का सम्भव हों, उतने गुणस्थानों में बन्धाधिकार के अनुसार बन्ध-स्वामित्व समझ लेना चाहिये ।
गतित्रस - शास्त्र में त्रस जीव दो प्रकार के माने जाते हैं— एक तो वे जिन्हें त्रसनामकर्म का उदय रहता है और जो चलते-फिरते भी हैं। दूसरे वे, जिनको उदय तो स्थावर नाम -कर्म का होता है, पर जिनमें गति - क्रिया पाई जाती है। ये दूसरे प्रकार के जीव 'गतित्रस' या 'सूक्ष्मत्रस'' कहलाते हैं।
१.
२.
उत्तराध्ययन अ. ३६, गा. १०७/
यथा
- 'सुहुमतसा ओघ थूल तसा (प्राचीन बन्धस्वामित्व गा. २५) ।
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