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कर्मग्रन्थभाग- ३
सामान्य
इन गतित्रसों में १०५ प्रकृतियों का बंध - स्वामित्व कहा हुआ है, तथा विशेष दोनों प्रकार से; क्योंकि उनमें पहला गुणस्थान ही होता है। उनके बंध - स्वामित्व में जिन एकादश आदि उपर्युक्त १५ प्रकृतियों के न गिनने का कारण यह है कि वे गतित्रस मर कर केवल तिर्यञ्चगति में जाते हैं, अन्य गतियों में नहीं। परन्तु उक्त १५ प्रकृतियाँ तो मनुष्य, देव या नरक गति ही में उदय पाने योग्य हैं।
यद्यपि गाथा में 'मणवयजोगे' तथा 'उरले' ये दोनों पद सामान्य हैं, तथापि 'ओहो' और 'नरभंगु' शब्द के सन्निधान से टीका में 'वयजोग का' मतलब मनोयोगसहित वचन योग और 'उरल' का मतलब मनोयोग वचन - योग सहित औदारिक काययोग-इतना रखा गया है; इसलिये अर्थ भी टीका के अनुसार ही कर दिया गया है। परन्तु 'वयजोग' का मतलब केवल वचनयोग और 'उरल' का मतलब केवल औदारिक काययोग रख कर भी उसमें बन्ध-स्वामित्व का जो विचार किया हुआ है; वह इस प्रकार है- केवल वचनयोग में तथा केवल औदारिक काययोग में विकलेन्द्रिय या एकेन्द्रिय के समान बन्ध - स्वामित्व है अर्थात् सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में १०९ और दूसरे गुणस्थान में ९६ या ९४ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व है।
योग का तथा उसके मनोयोग आदि तीन मूल भेदों का और सत्य मनोयोग आदि १५ उत्तर भेदों का स्वरूप चौथे कर्मग्रन्थ की गाथा ९, १० और २४वीं से जान लेना । | १३ |
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आहारछगविणोहे, चउदससउ मिच्छि जिणपणमहीणं । सासणि चउनवइ विणा, नरतिरिआऊ ' सुहुमतेर । । १४ । । आहारषट्कं विनौघे चतुर्दशशतं मिथ्यात्वे जिनपञ्चक हीनम् । सासादने चतुर्नवतिर्विना नरतिर्यगायुः सूक्ष्मत्रयोदश । । १४ । । अर्थ - ( पिछली गाथा से 'तम्मिसे' पद लिया जाता है) औदारिक मिश्रकाययोग में सामान्यरूप से ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है, क्योंकि आहारक-द्विक, देवआयु और नरकत्रिक इन छह प्रकृतियों का बन्ध उसमें नहीं होता। उस योग में पहले गुणस्थान के समय जिननामकर्म, देव-द्विक तथा वैक्रिय
१. ' तिरिअनराऊ इत्यपि पाठः ।
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