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कर्मग्रन्थभाग- ३
१७७
अणचउवीसाइविणा, जिणपणजुयसंमिजा 'गिणौ साय । विणु तिरिनराउकम्मे, वि एवमाहारदुगि ओहो । । १५ ।। अनचतुर्विंशतिं विना जिनपञ्चकयुताः सम्यकत्वे योगिनः सातम् । विना तिर्यङ्नरायुः कार्मणेष्येवमाहारकद्विक ओघः । । १५ । । अर्थ - पूर्वोक्त ९४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धिचतुष्क से लेकर तिर्यञ्च - द्विक - पर्यन्त २४ प्रकृतियों को घटा कर शेष ७० में जिननामकर्म, देव-द्विक तथा वैक्रियद्विक इन ५ प्रकृतियों के मिलाने से ७५ प्रकृतियाँ होती हैं; इनका बन्ध औदारिक मिश्र काययोग में चौथे गुणस्थान के समय होता है। तेरहवें
अर्थात् 'औदारिक मिश्रकाययोग का बन्धस्वामित्व औदारिक काययोग के समान ही है। विशेष इतना ही है कि देव आयु, नरक आयु, आहारक- द्विक और नरकद्विकइन छह प्रकृतियों का बन्ध औदारिक- मिश्र - काययोग में नहीं होता तथा उसमें मिथ्यात्व के और सास्वादन के समय देवचतुष्क व जिननाम कर्म इन ५ का बन्ध नहीं होता, पर अविरतसम्यग्दृष्टि के समय उनका बन्ध होता है।'
उपर्युक्त समाधान की पुष्टि श्री जयसोमसूरि के कथन से भी होती है। उन्होंने अपने टब्बे में लिखा है कि 'यदि यह पक्ष माना जाय कि शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक ही औदारिक-मिश्र-काययोग रहता है तो मिथ्यात्व में तिर्यञ्च आयु तथा मनुष्य आयु का बन्ध कथमपि नहीं हो सकता; इसलिये इस पक्ष की अपेक्षा से उस योग में सामान्यरूप से ११२ और मिथ्यात्व में १०७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए।' इस कथन से, स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण बन जाने पर्यन्त औदारिक मिश्रकाययोग रहता है— इस दूसरे पक्ष की सूचना स्पष्ट होती है ।
१. चौथे गुणस्थान के समय औदारिकमिश्रकाययोग में जिन ७५ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व कहा है, उनमें मनुष्यद्विक, औदारिक- द्विक और प्रथम संहनन - इन ५ प्रकृतियों का समावेश है। इस पर श्री जीवविजय जी महाराज ने अपने टब्बे में सन्देह उठाया है कि 'चौथे गुणस्थान में औदारिक मिश्रकाययोगी उक्त ५ प्रकृतियों को बाँध नहीं सकता। क्योंकि तिर्यंच तथा मनुष्य के अतिरिक्त दूसरों में उस योग का बंध सम्भव नहीं है और तिर्यञ्च मनुष्य उस गुणस्थान में उक्त ५ प्रकृतियों को बाँध ही नहीं सकते। अतएव तिर्यञ्च गति तथा मनुष्य गति में चौथे गुणस्थान के समय जो क्रम से ७० तथा ७१ प्रकृतियों का बन्ध स्वामित्व कहा गया है, उसमें उक्त ५ प्रकृतियाँ नहीं आतीं।' इस सन्देह का निवारण श्री जयसोमसूरि ने किया है
वे अपने टब्बे में लिखते हैं कि, 'गाथागत 'अणचडवीसाइ' इस पद का अर्थ अनन्तानुबन्धी आदि २४ प्रकृतियाँ - यह नहीं करना, किन्तु 'आइ' शब्द से और भी ५ प्रकृतियाँ लेकर, अनन्तानुबन्धी आदि २४ तथा मनुष्यद्विक आदि ५, कुल २९ प्रकृतियाँ – यह अर्थ करना। ऐसा अर्थ करने से उक्त संदेह नहीं रहता। क्योंकि ९४ में से २९ घटाकर शेष ६५ में जिनपंचक मिलाने से ७० प्रकृतियाँ होती हैं जिनका कि बन्ध - स्वामित्व उस योग में उक्त गुणस्थान के समय किसी तरह विरुद्ध
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