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कर्मग्रन्थभाग-२
हैं। इन ९९ में से ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय और ४ दर्शनावरण-इन १४ कर्म-प्रकृतियों का क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय में हो जाता है।।३०।।
अर्थ-अतएव, तेरहवें गुणस्थान में और चौदहवें गुणस्थान के द्विचरमसमय-पर्यन्त ८५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है। द्विचरम-समय में ७२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का अभाव हो जाता है। वे ७२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैंदेव-द्विक २, खगति-द्विक ४, गन्ध-द्विक-(सुराभिगन्धनामकर्म और दुरभि गन्धनामकर्म) ६, स्पर्षाष्टक-(कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्षस्पर्शनामकर्म) १४, वर्णपञ्चक—(कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्लवर्णनामकर्म) १९, रसपञ्चक-(कटुक, तिक्त, कषाय, अम्ल और मधुररसनामकर्म) २४, पाँच शरीर नामकर्म-२९, बन्धक-पञ्चक-(औदारिकबन्धक, वैक्रिय-बन्धन, आहारक-बन्धन, तैजस-बन्धन और कार्मणबन्धननामकर्म) ३४, संघातन-पञ्चक-(औदारिक-संघातन, वैक्रिय-संघातन, आहारक-संघातन, तैजससंघातन और कार्मणसंघातन-नामकर्म) ३९, निर्माणनामकर्म ४०॥३१॥ ___अर्थ-संहनन-षट्क-(वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्तसंहनन-नामकर्म) ४६, अस्थिरषट्क-(अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति-नामकर्म) ५२, संस्थान-घटक(समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन, कुब्ज और हुण्डसंस्थाननामकर्म) ५८, अगुरुलघु-चतुष्क ६२, अपर्याप्तनामकर्म ६३, सातावेदनीय या असातावेदनीय ६४ प्रत्येकत्रिक-(प्रत्येक, स्थिर और शुभनामकर्म) ६७, उपाङ्गत्रिक-(औदारिकअङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग और आहारक-अङ्गोपाङ्गनामकर्म) ७०, सुस्वरनामकर्म ७१ और नीचगोत्र ७२ ॥३२॥ ___ अर्थ—उपर्युक्त ७२ कर्म-प्रकृतियों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में हो जाता है जिससे अन्तिम समय में १३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। वे तेरह कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं—मनुष्य-त्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यआनुपूर्वी और मनुष्यआयु) ३, त्रस-त्रिक—(त्रस, बादर और पर्याप्तनामकर्म) ६, यश:कीर्तिनामकर्म ७, आदेयनामकर्म ८, सुभगनामकर्म ९, तीर्थकरनामकर्म १०, उच्चगोत्र ११, पञ्चेन्द्रियजातिनामकर्म १२ और सातवेदनीय या असातावेदनीय में से कोई एक १३। इन तेरह कर्म-प्रकृतियों का अभाव चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है और आत्मा निष्कर्म होकर सर्वथा मुक्त बन जाती है।।३३।।
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