Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्रीदेवेन्द्रसूरि - विरचित । बन्धस्वामित्व नामक तीसरा कर्मग्रन्थ ।
(हिन्दी - भाषानुवाद - सहित । )
'मंगल और विषय - कथन'
बन्धविहाणविमुक्कं वन्दिय सिरिवद्धमाणजिणचन्दं । गइयाईसु वुच्छं, समासओ बंधसामित्तं । । १॥ बन्धविधानविमुक्तं वन्दित्वा श्रीवर्धमानजिनचन्द्रम् ।
गत्यादिषु वक्ष्ये समासतो बन्धस्वामित्वम् । । १॥
अर्थ – भगवान् वीरजिनेश्वर जो चन्द्र के समान सौम्य हैं तथा जो कर्मबन्ध के विधान से निवृत्त हैं - कर्म को नहीं बाँधते । उन्हें नमस्कार करके गति आदि प्रत्येक मार्गणा में वर्तमान जीवों के बन्ध-स्वामित्व को मैं संक्षेप से कहूँगा॥१॥
भावार्थ
बन्ध - मिथ्यात्व' आदि हेतुओं से आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म - योग्य परमाणुओं का जो सम्बन्ध है, उसे बन्ध कहते हैं।
मार्गणा - गति आदि जिन अवस्थाओं को लेकर जीव में गुणस्थान, जीवस्थान आदि की मार्गणा – विचारणा — की जाती है उन अवस्थाओं को मार्गणा कहते हैं।
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मार्गणाओं के मूल-भेद' १४ और उत्तर- -भेद २ हैं; जैसे— पहली गतिमार्गणा के ४, दूसरी इन्द्रियमार्गणा के ५, तीसरी कायमार्गणा के ६, चौथी योगमार्गणा के ३, पाँचवीं वेदमार्गणा के ३, छठी कषायमार्गणा के ४, सातवीं ज्ञानमार्गणा के ८, आठवीं संयममार्गणा के ७, नौवीं दर्शनमार्गणा के ४, दसवीं श्यामार्गणा के ६, ग्यारहवीं भव्यमार्गणा के २, बारहवीं सम्यक्त्व मार्गणा के १. देखें चौथे कर्मग्रन्थ की ५० वीं गाथा ।
२. ' गइ इंदिए य काये वेए कसाय नाणे या
संजम दंसण लेसा भवसम्मे सन्नि आहारे || ९ || (चौथा कर्मग्रन्थ )
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