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कर्मग्रन्थभाग-३
(तिर्यञ्चगति का बन्धस्वामित्व) सम्यक्त्वी होते हुये भी तिर्यञ्च अपने जन्मस्वभाव से ही जिननामकर्म को बाँध नहीं सकते, वे आहारक-द्विक को भी नहीं बाँधते; इसका कारण यह है कि उसका बंध, चारित्र धारण करने वालों को ही हो सकता है, पर तिर्यञ्च चारित्र के अधिकारी नहीं हैं। अतएव उनके सामान्यबंध में उक्त ३ प्रकृतियों की गिनती नहीं की है।।७।।
बिणु नरयसोल सासणि, सुराउ अणएगतीस विणुमीसे। ससुराउ सयरि संमे, बीयकसाए विणा देसे।।८।। विना नरकषोडश सासादने सुरायुरनैकत्रिशतं विना मिश्रे।
ससुरायुः सप्ततिः सम्यक्त्वे द्वितीयकषायान्विना देशे।।८।।
अर्थ-दूसरे गुणस्थान में वर्तमान पर्याप्त तिर्यञ्च १०१ प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि पूर्वोक्त ११७ में से नरकत्रिक से लेकर सेवार्त-पर्यन्त १६ प्रकृतियों को वे नहीं बाँधते। तीसरे गुणस्थान में ६९ प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि उक्त १०१ में से अनन्तानबंधि-चतष्क से लेकर वज्रऋषभनाराचसंहननपर्यन्त ३१ तथा देव आयु इन ३२ प्रकृतियों का बंध उनको नहीं होता। चौथे गुणस्थान में वे उक्त ६९ तथा देवआयु-कुल ७० प्रकृतियों को बाँधते हैं तथा पाँचवें गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि उक्त ७० में से ४ अप्रत्याख्यानावरण कषायों का बंध उनको नहीं होता।।८।।
भावार्थ-चौथे गुणस्थान में वर्तमान पर्याप्त तिर्यञ्च देव आयु को बाँधते हैं परन्तु तीसरे गुणस्थान में वर्तमान उसे नहीं बाँधते; क्योंकि उस गुणस्थान के समय आयु' बाँधने के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते तथा उस गुणस्थान में मनुष्यगति-योग्य ६ (मनुष्य-द्विक, औदारिक-द्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन
और मनुष्य आयु) प्रकृतियों को भी वे नहीं बाँधते। इसका कारण यह है कि चौथे गुणस्थान की तरह तीसरे गुणस्थान के समय, पर्याप्त मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों ही देवगति-योग्य प्रकृतियों को बाँधते हैं; मनुष्यगति-योग्य प्रकृतियों को नहीं। इस प्रकार अनन्तानुबंधि-चतुष्क से लेकर २५ प्रकृतियाँ-जिनका बंध तीसरे गुणस्थान में किसी को नहीं होता- उन्हें भी वे नहीं बाँधते। इससे देव आयु १, मनुष्यगति योग्य उक्त ६ तथा अनन्तानुबंधि-चतुष्क आदि २५-सब मिलाकर ३२ प्रकृतियों को उपर्युक्त १०१ में से घटा कर शेष ६९ प्रकृतियों का बँध १. 'समा मिच्छट्टिी आउ बंधपि न करेइ'
इति वचनात्। 'मिस्सूणे आउस्सय' इत्यादि। (गोम्मटसार-कर्म.गा. ९२)
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