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कर्मग्रन्थभाग-३
नरकगति में सुरद्विक आदि १९ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, क्योंकि जिन स्थानों में उक्त १९ प्रकृतियों का उदय होता है नारक जीव नरकगति में से निकल कर उन स्थानों में नहीं उपजते। वे उदय-स्थान इस प्रकार हैं
वैक्रियद्विक, नरकत्रिक, देवत्रिक-इनका उदय देव तथा नारक को होता है। सूक्ष्म नामकर्म सूक्ष्म एकेन्द्रिय में; अपर्याप्त नामकर्म अपर्याप्त तिर्यश्च मनुष्य में; साधारण नामकर्म साधारण वनस्पति में; एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप नामकर्म एकेन्द्रिय में और विकलत्रिक द्वीन्द्रिय आदि में उदयमान होते हैं तथा आहारक द्विक का उदय चारित्र सम्पन्न लब्धिधारी मुनि को होता है।
सम्यक्त्वी ही तीर्थङ्कर नामकर्म के बन्ध के अधिकारी हैं। इसलिये मिथ्यात्वी नारक उसे बाँध नहीं सकते।
नपुंसक, मिथ्यात्व, हुण्ड और सेवार्त इन ४ प्रकृतियों को सास्वादन गुणस्थान वाले नारक जीव बाँध नहीं सकते; क्योंकि उनका बन्ध मिथ्यात्व के उदय काल में होता है, पर मिथ्यात्व का उदय सास्वादन के समय नहीं होता ॥४॥
विणुअण- छवीस मीसे, बिसयरि संमंमिजिणनराउजुया । इय रयणाइसु भंगो, पंकाइसु तित्थयरहीणो ।।५।। विनाऽनषड्विंशति मिश्रे द्वासप्ततिः सम्यक्त्वे जिननरायुर्युता । इति रत्नादिषु भंगः पङ्कादिषु तीर्थकरहीनः ।।५।।
अर्थ-तीसरे गुणस्थान में वर्तमान नारक जीव ७० प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि पूर्वोक्त ९६ में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क से लेकर मनुष्य-आयु-पर्यन्त २६ प्रकृतियों को वे नहीं बाँधते। चौथे गुणस्थान में वर्तमान नारक उक्त ७० तथा जिन नामकर्म और मनुष्य आयु, इन ७२ प्रकृतियों को बाँधते हैं। इस प्रकार नरकगति का यही सामान्य बंध-विधि रत्नप्रभा आदि तीन नरकों के नारकों को चारों गुणस्थानों में लागू पड़ता है। पंकप्रभा आदि तीन नरकों में भी तीर्थंकर नामकर्म के अतिरिक्त वही सामान्य बंध-विधि समझना चाहिये।।५।।
भावार्थ-पंकप्रभा आदि तीन नरकों का क्षेत्रस्वभाव ही ऐसा है कि जिससे उनमें रहने वाले नारक जीव सम्यक्त्वी होने पर भी तीर्थंकर नामकर्म को बाँध नहीं सकते। इससे उनको सामान्यरूप से तथा विशेष रूप से पहले गुणस्थान में १०० प्रकृतियों का, दूसरे में ९६, तीसरे में ७० और चौथे में ७१ का बंध है।।५।।
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