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कर्मग्रन्थभाग-३
१५३
अजिणमणुआउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुच्चविणु मिच्छे। इगनवइ सासाणे, तिरिआउ नपुंसचउवज्ज।।६।। अजिनमनुजायुरोघे सप्तभ्यां नरद्विकोच्चं विना मिथ्यात्वे। एकनवतिस्सासादने तिर्यगायुर्नपुंसकचतुष्कवर्जम्।।६।।
अर्थ-सातवें नरक के नारक, सामान्यरूप से ९९ प्रकृतियों को बाँधते हैं। क्योंकि नरकगति की सामान्य-बंध योग्य १०१ प्रकृतियों में से जिन नामकर्म तथा मनुष्य आयु को वे नहीं बाँधते। उसी नरक के मिथ्यात्वी नारक, उक्त ९९ में से मनुष्य गति, मनुष्य आनुपूर्वी तथा उच्चगोत्र को छोड़ ९६ प्रकृतियों को बाँधते हैं और सास्वादन गुणस्थानवर्ती नारक ९१ प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि उक्त ९६ में से तिर्यञ्चआयु, नपुंसकवेद, मिथ्यात्व,, हुण्डसंस्थान और सेवार्तसंहनन, इन ५ प्रकृतियों को वे नहीं बाँधते।।६।।
अणचउवीसविरहिया, सनरदुगुच्चा य सयरि मीसदुगे। सतरसउ ओहि मिच्छे, पज्जतिरिया विणु जिणाहारं।।७।। अनचतुर्विशतिविरहिता सनरद्विकोच्चा च सप्ततिर्मिश्रतिके। सप्तदशशतमोघे मिथ्यात्वे पर्याप्ततिर्यञ्चो विना जिनाहारम्।।७।।
अर्थ-पूर्वोक्त ९१ में से अनन्तानुबन्धि-चतुष्क से लेकर तिर्यञ्च-द्विकपर्यन्त २४ प्रकृतियों को निकाल देने पर शेष ६७ प्रकृतियाँ रहती हैं। इनमें मनुष्यगति, मनुष्य आनुपूर्वी तथा उच्चगोत्र-तीन प्रकृतियों को मिलाने से कुल ७० प्रकृतियाँ होती हैं। इनको तीसरे तथा चौथे गुणस्थान में वर्तमान सातवें नरक के नारक बाँधते हैं। (तर्यञ्चगति का बन्धस्वामित्व) पर्याप्त तिर्यञ्च सामान्यरूप से तथा पहले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों को बाँधते हैं; क्योंकि जिननामकर्म तथा आहारक-द्विक इन तीन प्रकृतियों को वे नहीं बाँधते।।७।।
भावार्थ-पूर्व-पूर्व नरक से उत्तर-नरक में अध्यवसायों की शुद्धि इतनी कम हो जाती है कि मनुष्य-द्विक तथा उच्चगोत्ररूप जिन पुण्यप्रकृतियों के बन्धक परिणाम पहले नरक के मिथ्यात्वी नारकों को हो सकते हैं उनके बन्ध योग्य परिणाम सातवें नरक में तीसरे, चौथे गुणस्थान के अतिरिक्त अन्य गुणस्थान में असम्भव हैं। सातवें नरक में उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम वे ही हैं जिनसे कि उक्त तीन प्रकृतियों का बन्ध किया जा सकता है। अतएव उसमें सबसे उत्कृष्ट पुण्य-प्रकृतियाँ उक्त तीन ही हैं।
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