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कर्मग्रन्थभाग-२
औपशमिक-सम्यक्त्वी अचरमशरीरी जीव की अपेक्षा से और जो २६वीं गाथा में १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता कही हुई है, सो क्षायिक-सम्यक्त्वी अचरम शरीरी जीव की अपेक्षा से। क्योंकि किसी भी अचरमशरीरी जीव को एक साथ सब आयुओं की सत्ता न होने पर भी उनकी सत्ता होने की सम्भव रहती ही है, इसीलिये उसको सब आयुओं की सत्ता मानी गई है ।।२७।।
अब क्षपकश्रेणिवाले जीव की अपेक्षा से ही नौवें आदि गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता दिखाई जाती है
थावरतिरिनिरयाव-दुगथीणतिगेगविगलसाहारम् । सोलखओ दुवीससयं बियंसि बियतियकसायंतो ।। २८।। स्थावरतिर्यग्निरयातपद्विकस्त्यानर्द्धित्रिकैकविकलसाधारम् ।
षोडशक्षयो द्वाविंशतिशतं द्वितीयांशे द्वितीयतृतीयकषायान्तः ।। तइयाइसु चउदसतेरबारछपणचउतिहियसय कमसो । नपु इत्थि हास छग पुंस तुरिय कोह मयमाय खओ ।।२९।। तृतीयादिषु चतुर्दशत्रयोदशद्वादशषट्पञ्चचतुस्त्र्यधिकशतं क्रमशः; नपुंसकस्त्रीहास्यषट्कपुंस्तुर्यक्रोधमदमायाक्षयः ।। २९।।
सुहुमि दुसय लोहन्तो खीणदुचरिमेगसओ दुनिद्दखओ। नवनवइ चरमसमए चउदंसणनाणविग्यन्तो ।।३०।। सूक्ष्मे द्विशतं लोभान्तः क्षीणद्विचरम एकशतं द्विनिद्राक्षयः । नवनवतिश्चरम-समये चतुर्दर्शनज्ञानविघ्नान्तः ।।३०।। पणसीइ सयोगि अजोगि दुचरिमे देवखगइ-गंधदुगं । फासट्ठवंनरसतणुबंधणसंघायपणनिमिणं ।।३१।। पञ्चाशीतिस्सयोगिन्ययोगिनि द्विचरमे देवखगतिगन्यद्विकम् । स्पर्षाष्टक-वर्णरसबंधनसंघातनपञ्चकनिर्माणम् ।।३१।। संघयणअथिरसंठाण- छक्कअगुरुलहुचहुचउअपज्जत्तं । सायं व असायं वा परित्तुवंगतिगसुसरनियं ।। ३२।। संहननास्थिरसंस्थानषट्कागुरुलघुचतुष्कापर्याप्तम् । सातं वाऽ सातं वा प्रत्येकोपाङ्गत्रिकसुस्वरनीचम् ।। ३२।।
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