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प्रस्तावना
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में ' १४ गुणस्थान' कहे जाते हैं। इन क्रमिक संख्यातीत अवस्थाओं को ज्ञानियों ने संक्षेप में १४ विभागों में विभाजित किया है। यही १४ विभाग जैन शास्त्र में ' १४ गुणस्थान' कहे जाते हैं।
वैदिक साहित्य में इस प्रकार की आध्यात्मिक अवस्थाओं का वर्णन है। पातञ्जल योग-दर्शन' में ऐसी आध्यात्मिक भूमिकाओं का मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा नाम से उल्लेख किया गया है। योगवासिष्ठ' में अज्ञान की सात और ज्ञान की सात इस तरह चौदह चित्तभूमिकाओं का विचार आध्यात्मिक विकास के आधार पर बहुत विस्तार से किया गया है।
(ग) मार्गणा और गुणस्थान का पारस्परिक अन्तर - मार्गणाओं की कल्पना कर्म-पटल के तरतमभाव पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक भिन्नताएं जीव को घेरे हुए हैं वही मार्गणाओं की कल्पना का आधार हैं। इसके विपरीत गुणस्थानों की कल्पना कर्मपटल के, खास कर मोहनीय कर्म के, तरतमभाव और योग की प्रवृत्ति - निवृत्ति पर अवलम्बित है।
मार्गणाएँ जीव के विकास की सूचक नहीं हैं, किन्तु वे उसके स्वाभाविकवैभाविक रूपों का अनेक प्रकार से पृथक्करण हैं। इससे उलटा गुणस्थान, जीव के विकास के सूचक हैं, वे विकास की क्रमिक अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्गीकरण हैं।
मार्गणाएँ सब सह- भाविनी हैं पर गुणस्थान क्रम - भावी । इसी कारण प्रत्येक जीव में एक साथ चौदहों मार्गणाएँ किसी न किसी प्रकार से पाई जाती हैंसभी संसारी जीव एक ही समय में प्रत्येक मार्गणा से वर्तमान पाये जाते हैं। इससे उलटा गुणस्थान एक समय में एक जीव में एक ही पाया जाता हैएक समय में सब जीव किसी एक गुणस्थान के अधिकारी नहीं बन सकते, किन्तु उनका कुछ भाग ही एक समय में एक गुणस्थान का अधिकारी होता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि एक जीव एक समय में किसी एक गुणस्थान में ही वर्तमान होता है, परन्तु एक ही जीव एक समय में चौदहों मार्गणाओं में वर्तमान होता है।
पूर्व - पूर्व गुणस्थान को छोड़कर उत्तरोत्तर गुणस्थान को प्राप्त करना आध्यात्मिक विकास को बढ़ाना है, परन्तु पूर्व-पूर्व मार्गणा को छोड़कर उत्तरोत्तर मार्गणा न तो प्राप्त ही की जा सकती हैं और न इनसे आध्यात्मिक विकास १. पाद १ सू. ३६; पाद ३ सू. ४८-४९ का भाष्य पाद १ सूत्र १ की टीका । २. उत्पत्ति प्रकरण - सर्ग ११७-११८-१२६, निर्वाण १२०-१२६ ।
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