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प्रस्तावना
विषय
मार्गणाओं में गुणस्थानों को लेकर बन्धस्वामित्व का वर्णन इस कर्मग्रन्थ में किया है; अर्थात् किस-किस मार्गणा में कितने गुणस्थानों का सम्भव है और प्रत्येक मार्गणावर्ती जीवों की सामान्य-रूप से तथा गुणस्थान के विभागानुसार कर्म-बन्ध-सम्बन्धिनी कितनी योग्यता है इसका वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है। मार्गणा, गुणस्थान और उनका पारस्परिक अन्तर
(क) मार्गणा-संसार में जीवन की बनावट में जुदाई है। क्या डीलडौल, क्या इन्द्रिय-रचना, क्या रूप-रंग, क्या चाल-ढाल, क्या विचार-शक्ति, क्या मनोबल, क्या विकारजन्य भाव, क्या चारित्र सब विषयों में जीव एक दूसरे से भिन्न हैं। यह भेद-विस्तार कर्मजन्य-औदयिक, औपशमिक; क्षायोपशमिक और क्षायिक-भावों पर तथा सहज पारिणामिक भावों पर अवलम्बित है। भिन्नता की गहराई इतनी ज्यादा है कि इससे सारा जगत् आप ही अजायबघर बना हुआ है। इन अनन्त भिन्नताओं को ज्ञानियों ने संक्षेप में चौदह विभागों में विभाजित किया है। चौदह विभागों के भी अवान्तर विभाग किये हैं, जो ६२ हैं। जीवों की बाह्य-आन्तरिक-जीवन-सम्बन्धिनी अनन्त भिन्नताओं के बुद्धिगम्य उक्त वर्गीकरण को शास्त्र में 'मार्गणा' कहते हैं।
(ख) गुणस्थान-मोह का प्रगाढ़तम आवरण, जीव की निकृष्टतम अवस्था है। सम्पूर्ण चारित्र-शक्ति का विकास निर्मोहता और स्थिरता की पराकाष्ठा—जीव की उच्चतम अवस्था है। निकृष्टतम अवस्था से निकल कर उच्चतम अवस्था तक पहुँचने के लिये जीव मोह के परदे को क्रमश: हटाता है और अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करता है। इस विकास-मार्ग में जीव को अनेक अवस्थायें तय करनी पड़ती हैं। जैसे थरमामीटर की नली के अङ्क, उष्णता के परिमाण को बतलाते हैं वैसे ही उक्त अनेक अवस्थायें जीव के आध्यात्मिक विकास की मात्रा को बताती हैं। दूसरे शब्दों में इन अवस्थाओं को आध्यात्मिक ‘गुणस्थान' कहते हैं। इन क्रमिक संख्यातीत अवस्थाओं को ज्ञानियों ने संक्षेप में १४ विभागों में विभाजित किया है। यही १४ विभाग जैन शास्त्र
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