________________
१२२
कर्मग्रन्थभाग-२
होता। क्योंकि स्थावर-नामकर्म का और एकेन्द्रियजाति-नामकर्म का उदय एकेन्द्रिय जीवों को होता है। द्वीन्द्रियजाति-नामकर्म का उदय द्वीन्द्रियों को; त्रीन्द्रियजाति-नामकर्म का उदय त्रीन्द्रियों को और चतुरिन्द्रियजाति-नामकर्म का उदय चतुरिन्द्रिय-पर्यन्त के जीवों में, पहला या दूसरा दो ही गुणस्थान हो सकता है। आनुपूर्वी का उदय जीवों को उसी समय में होता है जिस समय कि वे दूसरे स्थान में जन्म ग्रहण करने के लिये वक्रगति से जाते हैं। परन्तु तीसरे गुणस्थान में वर्तमान कोई जीव मरता नहीं है; इससे आनुपूर्वी-नाम-कर्म के उदयवाले जीवों में तीसरे गुणस्थान की सम्भावना भी नहीं की जा सकती। अतएव दूसरे गुणस्थान में जिन १११ कर्म-प्रकृतियों का उदय माना जाता है उनमें से अनन्तानुबन्धिकषाय-आदि पूर्वोक्त १२-कर्म-प्रकृतियों को छोड़ देने से ९९-कर्म-प्रकृतियाँ उदययोग्य रहती हैं। मिश्रमोहनीयकर्म का उदय भी तीसरे गुणस्थान में अवश्य ही होता है इसीलिये, उक्त ९९ और १ मिश्रमोहनीय, कुल १००-कर्म-प्रकृतियों का उदय उस गुणस्थान में माना जाता है। तीसरे गुणस्थान में जिन १००-कर्मप्रकृतियों का उदय हो सकता है उन में से मिश्रमोहनीय के अतिरिक्त शेष ९९ ही कर्म-प्रकृतियों का उदय चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों को हो सकता है तथा चतुर्थ गुणस्थान के समय सम्यक्त्व-मोहनीयकर्म के उदय का और चारों आनुपूर्वी नामकर्मों के उदय का सम्भव है; इसीलिये पूर्वोक्त ९९ और सम्यक्त्व-मोहनीयआदि (५), कुल १०४ कर्म-प्रकृतियों का उदय, उक्त गुणस्थान में वर्तमान जीवों को माना जाता है।
जब तक अप्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क का उदय रहता है तब तक जीवों को पञ्चम गुणस्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिये अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का उदय, पहले से चौथे तक चार गणस्थानों में ही समझना चाहिये; पाँचवें आदि गुणस्थानों में नहीं तथा पाँचवें से लेकर आगे के गुणस्थान, मनुष्यों और तिर्यञ्चों में यथासम्भव हो सकते हैं; देवों तथा नारकों में नहीं। मनुष्य
और तिर्यश्च भी आठ वर्ष की उम्र होने के बाद ही, पञ्चम-आदि गुणस्थानों को प्राप्त कर सकते हैं। पहले नहीं। परन्तु आनुपूर्वी का उदय वक्रगति के समय ही होता है। इसलिये, किसी भी आनुपूर्वी के उदय के समय जीवों में पञ्चमआदि गुणस्थान असम्भव हैं, नरक-गति तथा नरक-आयु का उदय नारकों को ही होता है; देवगति तथा देववायु का उदय देवों में ही पाया जाता है; और वैक्रिय-शरीर तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय देव तथा नारक दोनों में होता है। परन्तु कहा जा चुका है कि देवों और नारकों में पञ्चम-आदि गुणस्थान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org