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कर्मग्रन्थभाग-२
अर्थ-दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है; क्योंकि जिन ११७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में होता है उनमें से सूक्ष्मत्रिक (सक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म) आतपनामकर्म मिथ्यात्वमोहनीय और नरकानुपूर्वी-इन ६ कर्म-प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान में वर्तमान-जीवों को नहीं होता। अनन्तानुबन्धी चार कषाय, स्थावरनामकर्म, एकेन्द्रिय-जाति नामकर्म, विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) जातिनामकर्म।।१४।। और शेष आनुपूर्वी तीन अर्थात् तिर्यञ्चानुपूर्वी, मनुजानुपूर्वी
और देवानुपूर्वी इन १२-कर्मप्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान के समय नहीं होता; परन्तु मिश्र-मोहनीयकर्म का उदय होता है। इस प्रकार दूसरे गुणस्थान की उदय-योग्य १११-कर्म-प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी चार कषाय-आदि उक्त १२ कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर, शेष जो ९९ कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं उनमें मिश्र-मोहनीय-कर्म मिलाकर कुल १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान स्थित जीवों को हो सकता है।
चौथे गुणस्थान में वर्तमान जीवों को १०४ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है; क्योंकि जिन १०० कर्म-प्रकृतियों का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है उनमें से केवल मिश्र मोहनीय-कर्म का ही उदय चौथे गुणस्थान में नहीं होता, शेष ९९ कर्म-प्रकृतियों का उदय तो होता ही है तथा सम्यक्त्व मोहनीयकर्म और चारों आनुपूर्वियों का उदय भी सम्भव है। अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय।।१५।। मनुष्य-आनुपूर्वी (५) तिर्यञ्च-आनुपूर्वी (६) वैक्रियअष्टक (देवगति, देव-आनुपूर्वी, नरकगति, नरक-आनुपूर्वी, देव-आयु, नरक-आयु, वैक्रियशरीर और वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग (१४) दुर्भगनामकर्म (१५) और अनादेयद्विक (अनादेयनामकर्म तथा अयश: कीर्तिनामकर्म) (१७) इन सत्रह कर्म-प्रकृतियों को चौथे गुणस्थान की उदययोग्य (१०४) कर्म-प्रकृतियों में से घटा देने पर, शेष (८७) कर्म-प्रकृतियाँ रहती है। उन्हीं (८७) कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवें गुणस्थान में होता है।
उक्त ८७-कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्चगति (१) तिर्यञ्चायु (२) नीचगोत्र (३) उद्योतनामकर्म (४) और प्रत्याख्यानावरण चार कषाय (८) ।।१६।।
उक्त आठ कर्म-प्रकृतियों को घटाने से, शेष (७९) कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं। उनमें आहारक शरीर नामकर्म तथा आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म इन दो प्रकृतियों के मिलाने से कुल (८१) कर्म-प्रकृतियाँ हुई। छठे गुणस्थान में इन्हीं (८१) कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है।
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