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सत्ताधिकारः
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पहले सत्ता का लक्षण कहकर, अनन्तर प्रत्येक गुणस्थान में सत्ता-योग्य कर्म-प्रकृतियों को दिखाते हैं
सत्ता कम्माणठिई बंधाई-लद्ध-अत्त-लाभाणं। संते अडयाल-सयं जा उवसमु विजिणु बियतइए।। २५।। सत्ता कर्मणां स्थितिबन्धादिलब्धात्मलाभानाम् ।
सत्यष्टाचत्वारिंशच्छतं यावदुपशमं विजिनं द्वितीयतृतीये ।। २५।।
अर्थ--कर्म-योग्य जिन पुद्गलों ने बन्ध या संक्रमण द्वारा अपने स्वरूप को (कर्मत्व को) प्राप्त किया है। उन कर्मों के आत्मा के साथ लगे रहने को 'सत्ता' समझना चाहिये। सत्ता में १४८ कर्म-प्रकृतियाँ मानी जाती हैं। पहले गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान-पर्यन्त ग्यारह गुणस्थानों में से दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष नौ गुणस्थानों में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। दूसरे तथा तीसरे गुणस्थान में १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है; क्योंकि उन दो गुणस्थानों में तीर्थङ्करनामकर्म की सत्ता नहीं होती।।२५।।
भावार्थ-बन्ध के समय जो कर्म-पुद्गल जिस कर्म-स्वरूप में परिणत होते हैं उन कर्म-पुद्गलों का उसी कर्म-स्वरूप में आत्मा से लगा रहना कर्मों की ‘सत्ता' कहलाती है। इस प्रकार उन्हीं कर्म-पुद्गलों का प्रथम स्वरूप को छोड़ दूसरे कर्म-स्वरूप में बदल, आत्मा से लगे रहना भी ‘सत्ता' कहलाती है। प्रथम प्रकार की सत्ता को 'बन्ध सत्ता' के नाम से और दूसरे प्रकार की सत्ता को 'संक्रमण-सत्ता' के नाम से पहचानना चाहिये।
सत्ता में १४८ कर्म-प्रकृतियाँ मानी जाती हैं। उदयाधिकार में पाँच बंधनों और ५ संघातनों की विवक्षा अलग नहीं की है, किन्तु उन दसों कर्म-प्रकृतियों का समावेश पाँच शरीर नामकर्मों में किया गया है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शनाम कर्म की एक-एक प्रकृति ही विवक्षित है। परन्तु इस सत्ता-प्रकरण में बन्धन तथा संघात नामकर्म के पाँच-पाँच भेद शरीर नामकर्म से अलग गिने गये हैं तथा वर्ण गन्ध, रस, और स्पर्श नामकर्म की एक-एक प्रकृति के स्थान में, इस जगह ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्शनाम-कर्म गिने जाते हैं। जैसे
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