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कर्मग्रन्थभाग-२
१३१
उदीरणाधिकार
अब प्रत्येक गुणस्थान में जितनी-जितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा हो सकती है उन्हें दिखाते हैं
उदउव्वुदीरणा परमपमत्ताई सगगुणेसु ।। २३।।
उदय इवोदीरणा परमप्रमत्तादिसप्तगुणेषु ।। २३।।
अर्थ यद्यपि उदीरणा उदय के समान है—अर्थात् जिस गुणस्थान में जितनी कर्म-प्रकृतियों का उदय होता है उस गुणस्थान में उतनी ही कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा भी होती है। तथापि सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थानों में उदय की अपेक्षा उदीरणा में कुछ विशेष है।।२३।। उस विशेष को ही दिखाते हैं---
एसा पयडि-तिगूणा वेयणियाहारजुगलथीणतीगं। मणुयाउ पमत्तंता अजोगि अणुदीरगो भगवं ।। २४।। एषा प्रकृतित्रिकोना वेदनीयाहारक- युगलस्त्यानद्धित्रिकम् । मनुजायुः प्रमत्तान्ता अयोग्यनुदीरको भगवान् ।। २४।।
अर्थ-सातवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त, प्रत्येक गुणस्थान में उदीरणा-योग्य-कर्म-प्रकृतियाँ, उदय-योग्य-कर्म-प्रकृतियों से तीन तीन कम होती हैं; क्योंकि छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में आठ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा रुक जाती है। इससे आगे के गुणस्थानों में उन आठ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती। वे आठ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं—वेदनीय की दो प्रकृतियाँ (२) आहारकद्विक (४) स्त्यानद्धि-त्रिक (७) और मनुष्य-आय (८)। चौदहवें गुणस्थान में वर्तमान अयोगिकेवलिभगवान् किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते ।।२४।।
भावार्थ-पहले से छठे पर्यन्त छ:गुणस्थानों के उदीरणा योग्य-कर्मप्रकृतियाँ, उदय-योग्य कर्म-प्रकृतियों के बराबर ही होती हैं। जैसे-पहले गुणस्थान में उदय-योग्य तथा उदीरणा योग्य एक सौ सत्रह कर्म-प्रकृतियाँ होती हैं। दूसरे गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों का उदय तथा उदीरणा होती है।
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