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कर्मग्रन्थभाग-२ दुःस्वरनामकर्म २८, सुस्वरनामकर्म २९ और सातावेदनीय तथा असातावेदनीय-इन दो में से कोई एक ३०- ये तीस प्रकृतियाँ तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय तक ही उदय को पा सकती हैं, चौदहवें गुणस्थान में नहीं। अतएव पूर्वोक्त ४२ में से इन ३० कर्म-प्रकृतियों के घट जाने पर शेष १२ कर्म-प्रकृतियाँ चौदहवें गुणस्थान में रहती हैं। वे १२ कर्म-प्रकृतियाँ ये हैंसुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यश:कीर्तिनामकर्म, वेदनीयकर्म की दो प्रकृतियों में से कोई एक वसत्रिक (त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म और पर्याप्तनामकर्म), पञ्चेन्द्रिय जातिनामकर्म, मनुष्य-आय, मनुष्यगति, तीर्थङ्करनामकर्म और उञ्चगोत्रइन १२ प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय तक रहता है।
भावार्थ-चौदहवें गणस्थान में किसी भी जीव को वेदनीयकर्म की दोनों प्रकृतियों का उदय नहीं होता। इसलिये जिस जीव को उन दो में से जिस प्रकृति का उदय, चौदहवें गुणस्थान में रहता है उस जीव को उस प्रकृति के अतिरिक्त दूसरी प्रकृति का उदय-विच्छेद तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। औदारिक-द्विक-आदि उक्त तीस प्रकृतियों में से वेदनीयकर्म की अन्यतर प्रकृति के अतिरिक्त शेष २९ कर्म-प्रकृतियाँ पुद्गल-विपाकिनी (पुद्गल द्वारा विपाक का अनुभव कराने वाली) हैं इनमें से सुस्वरनामकर्म और दुःस्वरनामकर्म-ये दो प्रकृतियाँ भाषा-पुद्गल-विपाकिनी हैं। इससे जब तक वचन-योग्य की प्रवृत्ति रहती है और भाषापुद्गलों का ग्रहण तथा परिणमन होता रहता है तभी तक उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है। शेष २७ कर्म-प्रकृतियाँ शरीर-पुद्गलविपाकिनी हैं इसलिये उनका भी उदय तभी तक हो सकता है जब तक कि काययोग के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और आलम्बन किया जाता है। तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में ही योगों का निरोध हो जाता है। अतएव पद्गल-विपाकिनी उक्त २९ कर्म-प्रकृतियों का उदय भी उसी समय में रुक जाता है। इस प्रकार तेरहवें गुणस्थान में जिन ४२ कर्म-प्रकृतियों का उदय हो सकता है; उनमें से अन्यतरवेदनीय और उक्त २९ पुद्गल-विपाकिनी-कुल ३० कर्मप्रकृतियों को घटा देने से शेष १२ कर्म-प्रकृतियाँ रहती हैं। इन १२ कर्म-प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है। इसके रुक जाते ही जीव, कर्म-मुक्त होकर पूर्ण-सिद्ध-स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और मोक्ष को चला जाता है।।२१-२२।।
इति
उदयाधिकार समाप्त।
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