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कर्मग्रन्थभाग- २
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है; इसके बाद स्त्रीवेद के उदय को तत्पश्चात् पुरुष- वेद के उदय को रोक कर क्रमशः संज्वलन - त्रिक के उदय को बन्द कर देता है।
दसवें गुणस्थान में ६० कर्म - प्रकृतियों का उदय हो सकता है। इनमें से संज्वलन - लोभ का उदय, दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है। इसी से संज्वलन - लोभ को छोड़कर शेष ५९ कर्म-प्रकृतियों का उदय ग्यारहवें गुणस्थान में माना जाता है ।। १८-१९ ॥
सगवन्न खीण- दुचरिमि निहदुगंतो अ चरिमि पणवन्ना । नाणंतरायदंसण- चउछेओ सजोगि वायाल । । २० ।। सप्तपञ्चाशत् क्षीणद्विचरमे निद्राद्विकान्तश्च चरमे पञ्चपञ्चाशत् । ज्ञानान्तरायदर्शनचतुश्छेदः सयोगिनि द्विचत्वारिंशत् ।। २० ।। अर्थ - अतएव बारहवें गुणस्थान में ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय रहता है । ५७ कर्म- प्रकृतियों का उदय, बारहवें गुणस्थान के द्विचरम - समय - पर्यन्त - अर्थात् अन्तिम समय से पूर्व के समय - पर्यन्त पाया जाता है; क्योंकि निद्रा और प्रचला इन दो कर्म-प्रकृतियों का उदय, अन्तिम समय में नहीं होता। इससे पूर्वोक्त ५७ कर्म - प्रकृतियों में से निद्रा और प्रचला को छोड़कर शेष ५५ कर्म-प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। ज्ञानावरणकर्म की ५, अन्तरायकर्म की ५ और दर्शनावरणकर्म की ४ – कुल १४ कर्म - प्रकृतियों का उदय, बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यन्त ही होता है; आगे नहीं। इससे बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय की उदय - योग्य ५५ कर्म - प्रकृतियों में से उक्त १४ कर्म-प्रकृतियों के घटा देने से ४१ कर्म - प्रकृतियाँ शेष रहती हैं। परन्तु तेरहवें गुणस्थान से लेकर तीर्थंकर नामकर्म के उदय का भी सम्भव है। इसलिये पूर्वोक्त ४१, और तीर्थङ्कर नामकर्म, कुल ४२ कर्म- प्रकृतियों का उदय तेरहवें गुणस्थान में हो सकता है ॥२०॥
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भावार्थ - जिनको ऋषभनाराचसंहनन का या नाराचसंहनन का उदय रहता है वे उपशम-श्रेणि को ही कर सकते हैं। उपशम-श्रेणि करनेवाले, ग्यारहवें गुणस्थान- पर्यन्त ही चढ़ सकते हैं; क्योंकि क्षपकश्रेणि किये बिना बारहवें गुणस्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती । क्षपक- श्रेणि को वे ही कर सकते हैं जिनको कि वज्रऋषभनाराचसंहनन का उदय होता है। इसी से ग्यारहवें गुणस्थान की उदय - योग्य ५९ कर्म - प्रकृतियों में से ऋषभनाराच दो संहननों को घटाकर शेष ५७ कर्म - प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान में माना जाता है। इन ५७ कर्म
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