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कर्मग्रन्थभाग-२
११९
उदययोग्य तथा उदीरणा योग्य मानी जाती हैं।
बन्ध केवल मिथ्यात्व-मोहनीय का ही होता है, मिश्र मोहनीय तथा सम्यक्त्व-मोहनीय का नहीं। परन्तु वही मिथ्यात्व; जब परिणाम-विशेष से अर्द्धशुद्ध तथा शुद्ध हो जाता है तब मिश्र-मोहनीय तथा सम्यक्त्व-मोहनीय के रूप में उदय में आता है। इसी से उदय में ये दोनों कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध की अपेक्षा अधिक मानी जाती हैं। ___ मिश्र-मोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है। सम्यक्त्व-मोहनीय का उदय चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक हो सकता है। आहारक-शरीर तथा आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय छठे या सातवें गुणस्थान में ही हो सकता है। तीर्थङ्कर-नामकर्म का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही हो सकता है। इसी से मिश्र-मोहनीय-आदि उक्त पाँच कर्म-प्रकृतियों को छोड़ शेष ११७ कर्मप्रकृतियों का उदय पहले गुणस्थान में यथासम्भव माना जाता है ।।१३।। सुहुम-तिगायव मिच्छं मिच्छंतं सासणे इगार-सवं। निरयाणुपुवि-णुदया अण-थावर-इग-विगल-अन्तो।।१४।। सूक्ष्म-त्रिकातप-मिथ्यं मिथ्यान्तं सास्वादन एकादश-शतम्। निरयानुपूर्व्यनुदया दनस्थावरकविकलान्तः ।।१४।।
मीसे सयमणुपुव्वी-णुदयामीसोदएण मीसंतो। चउसयमजएसम्माणुपुस्वि-खेवा बिय-कसाया।।१५।। मिश्रे शत मानुपूर्व्यनुदयान्मिश्रोदयेन मिश्रान्तः। ,
चतुःशतमयते सम्यगानुपूर्वीक्षेपाद्वितीयकषायाः ।।१५।। मणुतिरिणु पुस्विविउवट्ठ दुहग अणाइज्जदुग सतरछेओ। सगसीइ देसि तिरिगइ आउ निउज्जोय तिकसाया।।१६।। मनुज-तिर्यगानुपूर्वी-वैक्रियाष्टकंदुर्भगमनादेयद्विकंसप्तदशच्छेद सप्ताशितिर्देशे तिर्यग्गत्यायुर्नीचोद्योत-तृतीय- कषायाः १६ ।
अट्ठच्छेओ इगसी पमत्ति आहार-जुगल-पक्खेवा। थीणतिगा-हारग-दुग छेओ छस्सयरि अपमत्ते।।१७।। अष्टच्छेद एकाशितिः प्रमत्ते आहारक-युगलप्रक्षेपात्। स्त्यानचित्रिकाहारक-द्विकच्छेदः षट्-सप्तति रप्रमत्ते ।।१७।।
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