________________
१२४
कर्मग्रन्थभाग-२
गोत्र का उदय भी मनुष्यों को चार गुणस्थान तक ही हो सकता है। पञ्चम आदि गुणस्थान प्राप्त होने पर, मनुष्यों में ऐसे गुण प्रकट होते हैं कि जिनसे उनमें नीच-गोत्र का उदय हो ही नहीं सकता और उच्च-गोत्र का उदय अवश्य हो जाता है। परन्तु तिर्यञ्चों को तो अपने योग्य सब गुणस्थानों में- अर्थात् पाँचों गुणस्थानों में स्वभाव से ही नीच गोत्र का उदय रहता है; उच्च-गोत्र का उदय होता ही नहीं तथा प्रत्याख्यानावरण चार कषायों का उदय जब तक रहता है तब तक छठे गुणस्थान से लेकर आगे के किसी भी गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती; और छठे आदि गुणस्थानों के प्राप्त होने के बाद भी प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय हो नहीं सकता। इस प्रकार तिर्यञ्च-गति-आदि उक्त आठ कर्मप्रकृतियों के बिना जिन ७९-कर्म-प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में होता है उनमें आहारक-शरीर-नामकर्म तथा आहारक-अङ्गोपाङ्ग नामकर्म, ये दो प्रकृतियाँ
और भी मिलानी चाहिये जिससे छठे गुणस्थान में उदय योग्य कर्म-प्रकृतियाँ ८१ होती हैं। छठे गुणस्थान में आहारक शरीर-नामकर्म का तथा आहारकअङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय उस समय पाया जाता है जिस समय कि कोई चतुर्दश पूर्वधर-मुनि, लब्धि के द्वारा आहारक-शरीर की रचना कर उसे धारण करता है। जिस समय कोई वैक्रिय-लब्धिधारी मुनि, लब्धि से वैक्रिय-शरीर को बनाकर उसे धारण करता है उस समय उसको उद्द्योत-नामकर्म का उदय होता है। क्योंकि शास्त्र में इस आशय का कथन पाया जाता है कि यति को वैक्रियशरीर धारण करते समय और देव को उत्तर वैक्रिय-शरीर धारण करते समय उद्द्योत-नामकर्म का उदय होता है। अब इस जगह यह शङ्का हो सकती है कि जब वैक्रिय-शरीरी यति की अपेक्षा से छठे गुणस्थान में भी उद्द्योत-नामकर्म का उदय पाया जाता है तब पाँचवें गुणस्थान तक ही उसका उदय क्यों माना जाता है? परन्तु इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि जन्म के स्वभाव से उद्द्योत-नामकर्म का जो उदय होता है वही इस जगह विवक्षित है; लब्धि के निमित्त से होनेवाला उद्द्योत-नामकर्म का उदय विवक्षित नहीं है। छठे गुणस्थान में उदययोग्य जो ८१ कर्म-प्रकृतियाँ कही हुई हैं उनमें से स्त्यानद्धि-त्रिक और आहारक-द्विक इन पाँच कर्म-प्रकृतियों का उदय सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि स्त्यानर्द्धित्रिक का उदय प्रमादरूप है, परन्तु छठे से आगे किसी भी गुणस्थान में प्रमाद नहीं होता। इस प्रकार आहारकशरीर-नामकर्म का तथा आहारक-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय, आहारकशरीर रचनेवाले मुनि को ही होता है। परन्तु वह मुनि लब्धि का प्रयोग करनेवाला होने से अवश्य ही प्रमादी होता है। जो लब्धि का प्रयोग करता है वह उत्सुक हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org