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कर्मग्रन्थभाग-२ (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान, (१२) क्षीणकषाय वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान, (१३) सयोगि केवलि गुणस्थान और, (१४) अयोगि केवलि गुणस्थान।
भावार्थ-जीव के स्वरूपविशेष को (भिन्न स्वरूप को) गुणस्थान कहते हैं। ये स्वरूपविशेष ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि-गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होते हैं। जिस वक्त अपना आवरणभूत कर्म कम हो जाता है, उस वक्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुणों की शुद्धि अधिक प्रकट होती है।
और जिस वक्त आवरणभूत कर्म की अधिकता हो जाती है, उस वक्त उक्त गुणों की शुद्धि कम हो जाती है, और अशुद्धि तथा अशुद्धि से होनेवाले जीव के स्वरूप विशेष असंख्य प्रकार के होते हैं, तथापि उन सब स्वरूप-विशेषों का संक्षेप चौदह गुणस्थानों के रूप में कर दिया गया है। चौदहों गुणस्थान मोक्षरूप महल को प्राप्त करने के लिये सीढ़ियों के समान हैं। पूर्व-पूर्व गुणस्थान की अपेक्षा उत्तर-उत्तर गुणस्थान में ज्ञान आदि गुणों की शुद्धि बढ़ती जाती है, और अशुद्धि घटती जाती है। अतएव आगे-आगे के गुणस्थानों में अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा शुभ प्रकृतियाँ अधिक बाँधी जाती हैं, और अशुभ प्रकृतियों का बँध भी क्रमश: रुकता जाता है।
१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-मिथ्यात्व-मोहनीय-कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा या प्रतिपत्ति) मिथ्या (उलटी) हो जाती है, वह जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है-जैसे धतूरे के बीज को खानेवाला मनुष्य सफेद-चीज़ को भी पीली देखता और मानता है। इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव भी जिसमें देव के लक्षण नहीं है उसको देव मानता है, तथा जिसमें गुरु के लक्षण नहीं उस पर गुरु-बुद्धि रखता है, और जो धर्मों के लक्षणों से रहित है उसे धर्म समझता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीव का स्वरूप-विशेष ही 'मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान' कहलाता है।
प्रश्न-मिथ्यात्वी जीव के स्वरूप-विशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं? क्योंकि जब उसकी दृष्टि मिथ्या (अयथार्य) है तब उसका स्वरूप-विशेष भी विकृत-अर्थात् दो दोषात्मक हो जाता है।
__उत्तर-यद्यपि मिथ्यात्वी की दृष्टि सर्वथा यथार्थ नहीं होती, तथापि वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी
आदि को मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूप से जानता तथा मानता है। इसलिये उसके स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहा है। जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण
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