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- कर्मग्रन्थभाग-२
१०१ है। सबसे पहले वह नपुंसकवेद को उपशान्त करता है। इसके बाद स्त्रीवेद को उपशान्त करता है। इसके अनन्तर क्रम से हास्यादि-घटक को, पुरुषवेद को, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-क्रोध-युगल को, संज्वलन क्रोध को अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-मान-युगल को संज्वलन मान को, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-माया-युगल को, संज्वलन माया को और अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-लोभ-युगल को नौवें गुणस्थान के अन्त तक में उपशान्त करता है तथा वह संज्वलन लोभ को दसवें गुणस्थान में उपशान्त करता है।।११।। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान
जिन्होंने मोहनीय-कर्म का सर्वथा क्षय किया है, परन्तु शेष घद्म (घतिकर्म) अभी विद्यमान हैं, वे क्षीण-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहलाते हैं और उनका स्वरूप-विशेष क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान कहलाता है। बारहवें गुणस्थान के इस नाम में १ क्षीण-कषाय, २. वीतराग और ३. छद्मस्थ ये तीन विशेषण हैं और ये तीनों विशेषण व्यावर्तक हैं। क्योंकि 'क्षीणकषाय' इस विशेषण के अभाव में 'वीतरागछद्मस्थ' इतने नाम से बारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त ग्यारहवें गुणस्थान का भी बोध होता है और 'क्षीणकषाय' इस विशेषण से केवल बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है, क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय क्षीण नहीं होते, किन्तु उपशान्त मात्र होते हैं।) तथा 'वीतराग' इस विशेषण के अभाव में भी क्षीणकषाय छद्मस्थगुणस्थान इतना ही नाम बारहवें गुणस्थान का ही बोधक नहीं होता, किन्तु चतुर्थ आदि गुणस्थानों का भी बोधक हो जाता है; क्योंकि उन गुणस्थानों में भी अनन्तानुबन्धि-आदि कषायों का क्षय हो सकता है। परन्तु 'वीतराग' इस विशेषण के होने से उन चतुर्थ आदि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकता। क्योंकि उन गुणस्थानों में किसी न किसी अंश में राग का उदय रहता ही है। अतएव वीतरागत्व असंभव है। इस प्रकार 'छमस्थ' इस विशेषण के न रहने से भी 'क्षीणकषाय वीतराग' इतना नाम बारहवें गुणस्थान के अतिरिक्त तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी बोधक हो जाता है। परन्तु 'छग्रस्थ' इस विशेषण के रहने से बारहवें गुणस्थान का ही बोध होता है। (क्योंकि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वर्तमान जीव को छद्म (घातिकर्म) नहीं होता।
बारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी जाती है। बारहवें गुणस्थान में वर्तमान जीव क्षपक-श्रेणि वाले ही होते हैं।
क्षपक-श्रेणि का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है-जो जीव क्षपक-श्रेणि को
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