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कर्मग्रन्थभाग-२
१०३
देखकर मनोद्रव्यों की रचना के आधार से अपने प्रश्न का उत्तर अनुमान से जान लेता है। केवलिभगवान् उपदेश देने के लिये वचन योग का उपयोग करते हैं और हलन-चलन आदि क्रियाओं में काययोग का उपयोग करते हैं।।१३।। अयोगिकेवलिगुणस्थान
जो केवलिभगवान् योगों से रहित हैं वे अयोगि-केवली कहलाते हैं तथा उनका स्वरूप-विशेष 'अयोगिकेवलिगणस्थान' कहलाता है।
तीनों प्रकार के योग का निरोध करने से अयोगि-अवस्था प्राप्त होती है। केवलज्ञानिभगवान्, सयोगि-अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व तक रहते हैं। इसके बाद जिन केवली भगवान् के वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति तथा पुद्गल (परमाणु), आयुकर्म की स्थिति तथा परमाणुओं की अपेक्षा अधिक होते हैं वे केवलज्ञानी समुद्धात करते हैं और समुद्धात के द्वारा वेदनीय, नाम और गोत्र-कर्म की स्थिति तथा परमाणुओं को आयु-कर्म की स्थिति तथा परमाणुओं के बराबर कर लेते हैं। परन्तु जिन केवलज्ञानियों के वेदनीय आदि उक्त तीन कर्म, स्थिति में तथा परमाणुओं में आयुकर्म के बराबर हैं, उनको समुद्धात करने की आवश्यकता नहीं है। अतएव वे समुद्धात को करते भी नहीं।
सभी केवलज्ञानी भगवान् सयोगि-अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिये योगों का निरोध करते हैं, जो कि परम-निर्जरा का कारणभूत तथा लेश्या से रहित और अत्यन्त स्थिरतारूप होता है।
योगों के निरोध का क्रम इस प्रकार है
पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग तथा बादर वचनयोग को रोकते हैं। अनन्तर सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकते हैं, और पीछे उसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग को तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। अन्त में वे केवलज्ञानी भगवान्, सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति-शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं। इस तरह सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान् अयोगी बन जाते हैं। और उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्तिशुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी पोले भाग को-मुख, उदरआदि भाग को-आत्मा के प्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। उनके आत्म-प्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे शरीर के तीसरे हिस्से में ही समा जाते हैं। इसके बाद वे अयोगिकेवलिभगवान् समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाति-शुक्लध्यान को प्राप्त
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