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कर्मग्रन्थभाग-२
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ऊपर कहा गया है और उसमें देव-आयु के बन्ध की सातवें गुणस्थान में जो समाप्ति होती है उसी की अपेक्षा से सातवें गुणस्थान की बन्ध-योग्य ५९ कर्मप्रकृतियों में देव-आयु की गणना की गई है। सातवें गुणस्थान में देव-आयु के बन्ध का प्रारम्भ नहीं होता और आठवें आदि गुणस्थानों में तो देव-आयु के बन्ध का प्रारम्भ और समाप्ति दोनों नहीं होता। अतएव देव-आयु को छोड़ ५८ कर्म-प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग में बन्ध-योग्य मानी जाती हैं। आठवें तथा नौवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। आठवें गुणस्थान की स्थिति के सात भाग होते हैं। इनमें से प्रथम भाग में, दूसरे से लेकर छठे तक पाँच भागों में और सातवें भाग में जितनी-जितनी कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है; वह नौवीं तथा दसवीं गाथा के अर्थ में दिखाया गया है। इस प्रकार नौवें गणस्थान की स्थिति के पाँच भाग होते हैं। उनमें से प्रत्येक भाग में जो बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ हैं, उनका कथन ग्यारहवीं गाथा के अर्थ में कर दिया गया है।।९।।१०-११॥
चउदंसणुच्वजसनाण विग्घदसगंति सोल सुच्छेओ। तिसु सायबंध छेओ सजोगिबंधंतु णंतो ।।१२।। (चतुर्दर्शनोच्चयशोज्ञानविनदशकमिति षोडशोच्छेदः। त्रिषु सातबन्धश्छेदः सयोगिनि बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च ।। १२।।
अर्थ-दसवें गुणस्थान की बन्ध-योग्य १७ कर्म-प्रकृतियों में से ४दर्शनावरण, उच्चगोत्र, यश:कीर्त्तिनामकर्म, ५-ज्ञानावरण और ५-अन्तराय इन १६-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध विच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्त में होता है। इससे केवल सातावेदनीय कर्म-प्रकृति शेष रहती है। उसका बन्ध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में होता है। तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय में सातावेदनीय का बन्ध भी रुक जाता है इससे चौदहवें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बन्ध नहीं होता। अर्थात्-अबन्धक अवस्था प्राप्त होती है। इस प्रकार जिन-जिन कर्मप्रकृतियों के बन्ध का जहाँ-जहाँ अन्त (विच्छेद) होता है और जहाँ-जहाँ अन्त नहीं होता; उसका वर्णन हो चुका।।१२।।
भावार्थ-४ दर्शनावरण-आदि जो १६ कर्म-प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं उनका बन्ध कषाय के उदय से होता है और दसवें गुणस्थान से आगे कषाय का उदय नहीं होता; इसी से उक्त सोलह कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी दसवें गुणस्थान तक ही होता है। यह सामान्य नियम है कि कषाय का उदय कषाय
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