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कर्मग्रन्थभाग-२
के बन्ध का कारण होता है और दसवें गुणस्थान में लोभ का उदय रहता है। इसलिये उस गणस्थान में उक्त नियम के अनुसार लोभ का बन्ध होना चाहिये। ऐसी शङ्का यद्यपि हो सकती है; तथापि इसका समाधान यह है कि स्थूल-लोभ के उदय से लोभ का बन्ध होता है; सूक्ष्म-लोभ के उदय से नहीं। दसवें गुणस्थान में तो सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है। इसलिये उस गुणस्थान में लोभ का बन्ध माना नहीं जाता।
ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थान में सातावेदनीय का बन्ध होता है, सो भी योग के निमित्त से; क्योंकि उन गणस्थानों में कषायोदय का सर्वथा अभाव ही होता है। अतएव योग-मात्र से होनेवाला वह सातावेदनीय का बन्ध, मात्र दो समयों की स्थिति का ही होता है।
___ चौदहवें गुणस्थान में योग का अभाव हो जाता है, इसी से सातावेदनीय का बन्ध भी उस गुणस्थान में नहीं होता, और अबन्धकत्व-अवस्था प्राप्त होती है। जिन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध जितने कारणों से होता है, उतने कारणों के रहने तक ही, उन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है और उतने कारणों में से किसी एक कारण के कम हो जाने से भी उन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। शेष सब कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। जैसे-नरक-त्रिक-आदि पूर्वोक्त १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन चार कारणों से होता है। ये चारों कारण पहले गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त रहते हैं इसलिये उक्त १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी उस समयपर्यन्त हो सकता है, परन्तु पहले गुणस्थान से आगे मिथ्यात्व आदि उक्त चार कारणों में से मिथ्यात्व नहीं रहता, इससे नरकत्रिक-आदि पूर्वोक्त १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान से आगे नहीं होता; और सब कर्म-प्रकृतियों का बन्ध यथासम्भव होता ही है। इस प्रकार दूसरी २ कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का अन्त (विच्छेद) और अन्ताभाव (विच्छेदाभाव) ये दोनों, बन्ध के हेतु के विच्छेद और अविच्छेद पर निर्भर हैं।।१२॥
।। बन्याधिकार समाप्त ।।
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