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कर्मग्रन्थभाग-२
नरयतिगजाइथावर चउ, हुण्डायवछिवट्ठ नपुमिच्छं। सोलंतो इगहिय सय, सासाणि तिरिथीणदुहगतिगं ।।४।। नरकत्रिकजातिस्थावरचतुष्क, हुण्डातपसेवार्त नपुंमिथ्यात्वम् षोडशान्तएकाधिकशतं, सास्वादने तिर्यस्त्यानर्द्धिदुर्भगत्रिकम्।।४।
अणमज्झागिइ संघयण चउ, निउज्जोय कुखगइस्थिति। पणवीसंतो मीसे चउसयरिदुआउअअबन्धा।।५।। अनमध्याकृतिसंहनन चतुष्कनीचोद्योत कुखगतिस्त्रीति। पंचविंशत्यन्तो मिश्रे, चतुःसप्तति यायुष्काऽ बन्धात् ।।५।।
अर्थ—सास्वादन-गुणस्थान में १०१ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। क्योंकि पूर्वोक्त ११७ कर्म-प्रकृतियों में से नरकत्रिक, जातिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, हुण्डसंस्थान, आतपनामकर्म, सेवार्तसंहनन, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व-मोहनीय इन १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान के अन्त में ही हो जाता है। इससे वे १६ कर्म-प्रकृतियाँ पहले गुणस्थान से आगे नहीं बाँधी जा सकतीं तथा तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, दुर्भगत्रिक अनन्तानुबन्धिकषाय चतुष्क, मध्यमसंस्थानचतुष्क, मध्यमसंहननचतुष्क, नीच गोत्र, उद्योतनामकर्म, अशुभविहायोगतिनामकर्म और स्त्रीवेद इन २५-कर्म-प्रकृतियों का बन्धविच्छेद दूसरे गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है। इससे दूसरे गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उन २५ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो नहीं सकता। इस प्रकार पूर्वोक्त १०१-कर्म-प्रकृतियों में से तिर्यञ्च-त्रिक-आदि उक्त २५ कर्मप्रकृतियों के घटा देने से शेष ७७ कर्म-प्रकृतियाँ रह जाती हैं। उन ७६ कर्मप्रकृतियों में से भी मनुष्य-आयु तथा देव-आयु को छोड़कर शेष ७४ कर्म प्रकृतियों का बन्ध सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में (तीसरे गुणस्थान में) हो सकता है।।५।।
भावार्थ-नरकगति, नरक-आनुपूर्वी और नरक-आयु इन तीन कर्मप्रकृतियों को नरकत्रिक शब्द से लेना चाहिये जातिचतुष्क-शब्द का मतलब एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति इन चार जातिनामकर्मों से है। स्थावरचतुष्क शब्द, स्थावरनामकर्म से साधारण नामकर्मपर्यन्त चार कर्म-प्रकृतियों का बोधक है। वे चार प्रकृतियाँ ये हैं-स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारणनामकर्म।
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