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कर्मग्रन्थभाग- २
है तथा तिर्यञ्च - आयु भी तिर्यञ्चत्रिक आदि पूर्वोक्त पच्चीस कर्म - प्रकृतियों में आ जाती है। इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य जो १०१ - कर्म- प्रकृतियाँ हैं उनमें से तिर्यञ्चत्रिक-आदि पूर्वोक्त २५ तथा मनुष्य - आयु और देव-आयु कुल २७ कर्म-प्रकृतियों के घट जाने से शेष ७४ कर्म-प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थान बन्धयोग्य रहती हैं | | ४ ॥
सम्भे गरि जिणाउबंधि, वइर नरतिग बियकसाया । उरल दुगंतो देसे, सत्तट्ठी तिअकसायंतो ।।६।। सम्यक्त्वे सप्तसप्तति र्जिनायुर्बन्धे, वज्रनरत्रिक द्वितीय कषाया। औदारिकद्विकान्तो देशे, सप्तषष्टिस्तृतीयकषायान्तः || ६ || तेवट्टि पमते सोग अरइ, अथिर दुग अजस अस्सायं । बुच्छिञ्ज छच्च सत्तव, नेइ सुराउं जयानिङ्कं ।। ७ ।। त्रिषष्टिः प्रमत्ते शोकारत्यस्थिर द्विकायशोऽसातम् । व्यवच्छिद्यते षट्च सप्त वा नयति सुरायुर्यदा निष्ठाम् ।।७।। गुणसट्ठि अपमत्ते सुराउबंधंतु जइ इहागच्छे । अन्नेह अट्ठावण्णा जं आहारग दुगं बंधे ||८|| एकोनषष्टिरप्रमत्ते सुरायुर्बध्नन् यदीहागच्छेत् । अन्यथाऽष्टपञ्चाशद्यदाऽऽहारक द्विकं बन्धे ||८||
अर्थ — अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में ७७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकि तीसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य पूर्वोक्त ७४ कर्मप्रकृतियों को तथा जिननामकर्म, मनुष्य- आयु और देव-आयु को चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव बाँध सकते हैं। देशविरति-न - नामक पाँचवें गुणस्थान में ६७ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध हो सकता है। क्योंकि पूर्वोक्त ७७ कर्म-प्रकृतियों में से वज्रऋषभनाराचसंहनन, मनुष्यत्रिक, अप्रत्याख्यानावरण चार कषाय और औदारिकद्विक इन १० कर्म- प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद चौथे गुणस्थान से आगे के अन्तिम समय में हो जाता है। इससे चौथे गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में उन १० कर्म - प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । पाँचवें गुणस्थान के अन्तिम - समय में तीसरे चार कषायों का — अर्थात् प्रत्याख्यानावरण- कषाय की चार प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है || ६ || अतएव पूर्वोक्त ६७ कर्म- प्रकृतियों में से उक्त चार कषायों के घट जाने से शेष ६३ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध प्रमत्त
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