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कर्मग्रन्थभाग- २
करते हैं और मध्यम रीति से पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय का 'शैलेशीकरण' करते हैं। सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व-संवर-रूप योग निरोध-अवस्था को 'शैलेशी' कहते हैं तथा उस अवस्था में वेदनीय, नाम और गोत्र - कर्म की गुण-श्रेणि से और आयु[-कर्म की यथास्थितश्रेणि से निर्जरा करने को 'शैलेशीकरण' कहते हैं। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगि- केवलज्ञानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार भवोपग्राहि कर्मों का सर्वथा क्षय कर देते हैं और उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे एकसमयमात्र में ऋजु - गति से ऊपर की ओर सिद्धि-क्षेत्र में चले जाते हैं। सिद्धि क्षेत्र, लोक के ऊपर के भाग में वर्तमान है। इसके आगे किसी आत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती । इसका कारण यह कि आत्मा को या पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय - द्रव्य की सहायता अपेक्षित होती है। परन्तु, लोक के आगे - अर्थात् अलोक में धर्मास्तिकाय-द्रव्य का अभाव है । कर्म-मल के हट जाने शुद्ध आत्मा के लेपों से युक्त तुम्बा, लेपों के हट जाने पर जल के तल से ऊपर की ओर चला आता है।।१४।।
गुणस्थानों का स्वरूप कहा गया। अब बन्ध के स्वरूप को दिखाकर प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध-योग्य कर्म - प्रकृतियों को १० गाथाओं से दिखाते हैंअभिनव - कम्म-ग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थवीस सयं । तित्थयराहारग- दुग- वज्जं मिच्छंमि सत्तर सयं । । ३ । । (अभिनव - कर्म ग्रहणं बन्ध ओघेन तत्र विंशति - शतम् ।
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तीर्थंकराहारक-द्विक-वर्जं मिथ्यात्वे सप्तदश शतम् । । ३ । ।
अर्थ - नये कर्मों के ग्रहण को बन्ध कहते हैं। सामान्य रूप से – अर्थात् किसी खास गुणस्थान की अथवा किसी जीवविशेष की विवक्षा किये बिना ही, बन्ध में १२० कर्म-प्रकृतियाँ मानी जाती हैं - अर्थात् सामान्य रूप से बन्धयोग्य १२० कर्म- प्रकृतियाँ हैं । १२० कर्म - प्रकृतियों में से तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारक-द्विक को छोड़कर शेष ११७ कर्म-प्रकृतियों मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में होता है।
का बन्ध
भावार्थ- जिस आकाश क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहनेवाली कर्म-योग्य पुद्गलस्कन्धों की वर्गणाओं को कर्म रूप से परिणत कर, जीव के द्वारा उनका ग्रहण होना यही अभिनव - कर्म-ग्रहण है। कर्म - योग्य पुद्गलों का कर्म
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